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________________ कर्म का संपूर्ण क्षयकर जो आत्माएँ वीतराग बनी होती हैं, उन आत्माओं को किसी प्रकार के मैथुन की लेश भी इच्छा या प्रवृत्ति नहीं होती है / इस वेद के उदय के कारण ही संसारी जीवों को विजातीय तत्त्व के प्रति मोह उत्पन्न होता है और आगे चलकर विषय की अभिलाषा जागृत होती है / 1) स्त्रीवेद : जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा पैदा होती है, उसे स्त्रीवेद कहते हैं / इस वेद का उदय करीष की आग के समान है / करीष अर्थात् सूखा गोबर | करीष की आग धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, उसी प्रकार पुरुष के करस्पर्श आदि से स्त्री की कामवासना बढ़ती जाती है। 2) पुरुष वेद : जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ मैथुन सेवन की इच्छा होती है, उसे पुरुष वेद कहते हैं / पुरुष वेद का उदय तृण की अग्नि समान है / जिस प्रकार तृण जल्दी सुलगता है और जल्दी शांत हो जाता है; उसी प्रकार पुरुष वेद के उदय से पुरुष को स्त्री के प्रति अधिक उत्सुकता होती है और स्त्रीसेवन के बाद वह उत्सुकता शांत हो जाती है | 3) नपुंसक वेद : जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा होती है, उसे नपुंसक वेद कहते हैं / यह कामवासना नगरदाह की आग समान है | जैसे नगर में आग लगने पर उस नगर को जलने में अधिक समय लगता है और उस आग को बुझाने में भी अधिक समय लगता है, इसी प्रकार नपुंसक वेद के उदय से जन्य विषयाभिलाषा जल्दी शांत नहीं होती है अर्थात् विषयसेवन से भी तृप्ति नहीं होती है। इस प्रकार कषाय मोहनीय की 16 और नोकषाय मोहनीय की 9 प्रकृतियाँ मिलकर चारित्र मोहनीय की कुल 25 प्रकृतियाँ होती हैं / दर्शन मोहनीय की 3 और चारित्र मोहनीय की 25 प्रकृतियाँ मिलकर मोहनीय कर्म की कुल 28 प्रकृतियाँ होती हैं / कर्मग्रंथ (भाग-1) 1147
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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