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________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका जनसंस्कृति अथवा ब्रह्म-विजय कार्य है, किंतु ब्रह्म ऊपर कहा जा चुका है कि भूमि के साथ जनता का सब से अच्छा और गहरा संबंध उसकी संस्कृति के द्वारा होता है । पृथिवी पर मनुष्य दो प्रकार से अपने आपको प्रतिष्ठित करता है - एक सैनिक बल या क्षेत्र- विजय के द्वारा और दूसरा ज्ञान या ब्रह्म-विजय के द्वारा । क्षत्र- विजय ( पॉलिटिक मिलिटरी एंपायर ) भी एक महान पराक्रम का विजय (आइडियॉलॉजिकल कल्चर ए पायर) उससे भी महान् है । इन दोनों दिग्विजयों के मार्ग एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। हमारी पृथिवी का इतिहास दोनों प्रकार से गौरवशील है। क्षत्र-बल के द्वारा देश में अनेक छोटे और बड़े राज्यों की स्थापना हमारे इतिहास में होती रही। किसी पूर्व युग में इस भूमि पर देवों ने असुरों को पछाड़ा था और दुदुभि-घोष के द्वारा पृथिवी को दस्युओं और शत्रुओं से रहित किया था; उसके फलस्वरूप पृथिवीं पुत्रों ने अजीत, अक्षत और अहत होकर भूमि पर अधिकार प्राप्त किया। इस प्रकार की क्षत्र- विजय इतिहास में पर्याप्त महत्त्वपूर्ण समझो जाती है, परंतु भूमि की सची विजय उसकी संस्कृति या ज्ञान की विजय है । जैसा कहा है, यह पृथिवीं ब्रह्म या ज्ञान के द्वारा संवर्धित होती है .७२ ब्रह्मणा वावृधानाम् (२९) ब्रह्म-विजय के लिये एक व्यक्ति का जीवन उतना ही बड़ा है जितनी पूरी त्रिलोकी । उस विशाल क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान और कर्म की पूरी ऊँचाई तक उठकर दिग्विजय के आदर्श को स्थापित कर सकता है । एक छोटे जनपद का शासक भी अपने पराक्रम से सच्ची ब्रह्मविजय प्राप्त करके जब यह घोषित करता है कि मेरे राज्य में चोर, पापी और आचारहीन व्यक्ति नहीं रहते, तब वह अपने उस परिमित केंद्र में बड़े से बड़े सार्वभौम शासक का ऊँचा आदर्श और महत्त्व प्राप्त कर लेता है । व्यक्तियों और जनपदों के - द्वारा यह ब्रह्मविजय समस्त देश में फैलती है, और एक - एक ग्राम, पुर, नदी, पर्वत और अरण्य को व्याप्त करती हुई देशांतर और द्वीपांतरों तक पहुँचती है। दर्शन, ज्ञान, साहित्य, कला, संस्कृति की बहुमुखी विजय भारतवर्ष की ब्रह्म-विजय के रूप में संसार के दूर देशों में मान्य हुई, जिसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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