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पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन अनेक प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। बृहत्तर भारत का अध्ययन इसो चातुर्दिश ब्रह्म-विजय का अध्ययन है।
ब्रह्म-विजय या संस्कृति के साम्राज्य का रहस्य क्या है ? आध्यात्मिक जीवन के जो महान् तस्त्र हैं ऋषि की दृष्टि में वे ही पृथिवी को धारण करते हैं। इस सूक्त के प्रथम मंत्र में ही राष्ट्र की इस आधार-भूमि का वर्णन किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमि के स्वरूप का ध्यान करते हुए सब से पहले यही मूल सत्य ऋषि के ध्यान में पाया जिसे उसने निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया
सत्य बृहहतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति । सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी
उर्स लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥ १॥ 'सत्य, बृहत् और उन ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ-ये पृथिवी को धारण करते हैं । जो पृथिवो हमारे भूत और भविष्य की पत्नी है वह हमारे लिये विस्तृत लोक प्रदान करनेवाली हो।'
यह मंत्र भारतवर्ष की सांस्कृतिक विजय का अंतर्यामो सूत्र है। इससे तीन बातें ज्ञात होतो हैं-सत्य, ऋत आदिक शाश्वत तत्त्व जिस तरह आध्यात्मिक जीवन के आधार हैं, उसी तरह राष्ट्रीय जीवन के भी आधार हैं, उन्हीं से संस्कृति का निर्माण होता है। दूसरे भूत काल में और भविष्य में राष्ट्र के साथ पृथिवी का जो सबंध है वह सस्कृति के द्वारा ही सदा स्थिर रहता है। तीसरे यह कि ब्रह्म-विजय के मार्ग में पृथिवी की दिक् सीमाएँ अनंत हो जाती हैं। एक जनपद से जो सस्कृति की विजय प्रारंभ होती है उसकी तरंगें देश में फैलतो हैं, और पुनः देश से बाहर, समुद्र और पर्वतों को लाँघती हुई देशांतरों में और समस्त भूमंडल में फैल जाती हैं। यहो पृथिवी का 'उरु-लोक प्रदान करना है।
__सत्य और ऋत जीवन के दो बड़े आधार-स्तंभ हैं। कर्म का सत्य सत्य है और मन का सत्य ऋत है। मानस-सत्य के नियम विश्व भर में अखंड और दुर्धर्षे हैं। कर्म-सत्य और मानस-सत्य इन दोनों के बल से राष्ट्र बलवान्
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