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________________ ६२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रकंप उत्पन्न करते हैं, और शारीरिक बलों में चेतना या हलचल को जन्म देते हैं। इन दो प्रकार के वेगों ( फोर्सज ) के लिये वेद में 'एजथ्रु' और 'वेपथु' शब्दों का प्रयोग किया गया है महत्सवस्थं महती बभूव; महावेग एजथुर्वेपथुष्टे (१८) । भूमि की एक संज्ञा सघस्थ ( कॉमन फादरलैंड ) है, क्योंकि यहाँ उसके सब पुत्र मिलकर ( सह + स्थ) एक साथ रहते हैं । यह महती पितृभूमि या सधस्थ विस्तार में अत्यंत महान् है और ज्ञान की प्रतिष्ठा में भी इसका पद ऊँचा है। इसके पुत्रों के एजथु ( मन के प्रेरक वेग ) और वेपथु (शरीर के बल) भी महान् हैं। तीन महत्ताओं से युक्त इसकी रक्षा महान इंद्र प्रमादरहित होकर करते हैं ( महांस्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्, १८ ) । महान् देश- विस्तार, महती सांस्कृतिक प्रतिष्ठा, जनता में शरीर और मन का महान् आन्दोलन और राष्ट्र का महान् रक्षण-बल- ये चारों जब एक साथ मिलते हैं तब उस युग में इतिहास स्वर्ण के तेज से चमकता है। इसी का कवि ने कहा है- 'हे भूमि, हिरण्य के संदर्शन से हमारे लिये चमको, कोई हमारा वैरी न हे।' ( १८ ) । बड़े बड़े बवंडर और भूचाल, हउहरे और हड़कंप, बतास और मँफाएँ - भौतिक और मानसिक जगत् में पृथिवी पर चलते रहते हैं । इतिहास में कहीं युद्धों के प्रलयंकर मेघ मँडराते हैं, कहीं क्रांति और विप्लवों के धक्के पृथिवी को डगमगाते हैं, पर ंतु पृथिवी का मध्यबिंदु कभी नहीं डोलता । जिन युगों में किलकारी मारनेवाली घटनाओं के अध्याय सपाटे के साथ दौड़ते हैं, उनमें भी पृथिवी का केंद्र ध्रुव और अडिग रहता है। इसका कारण यह है कि यह पृथिवी इंद्र की शक्ति से रक्षित ( इंद्रगुप्ता) है; सब में महान देव इंद्र प्रमादरहित होकर स्वयं इसकी रक्षा करता रहता है। इस प्रकार की कितनी -- 1 परीक्षाओं में पृथिवी उत्तीर्ण हो चुकी है। कवि की दृष्टि में मनु की संतति इस पृथिवी पर असंबाध निवास करती है (अस बाधं बध्यतो मानवानाम्, २ ) । इस भूमि के पास चार दिशाएँ हैं, इसका स्मरण कराने का तात्पर्य है कि प्रत्येक दिशा में जो स्वाभाविक दिक्सीमा है वहाँ तक पृथिवी का अप्रतिहत विस्तार है । 'प्राची और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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