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________________ पृथिवीसूक्त - एक अध्ययन ६३ उदोची, दक्षिण और पश्चिम - इन दिशाओं में सर्वत्र हमारे लिये कल्याण हो हम कहीं से उत्त न हों ( ३१, ३२ ) । इस भुवन का आश्रय लेते हुए हमारे पैरों में कहीं ठोकर न लगे ( मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाण: ) और हमारे दाहिने और बाएँ पैर ऐसे दृढ़ प्रतिष्ठित हों कि किसी अवस्था में भी लड़खड़ाएँ नहीं ( पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ) । जनता के पराक्रम की चार अवस्थाएँ होती हैं- कलि, द्वापर, त्रेता और कृत । जनता का साया हुआ रूप कलि है, बैठने की चेष्टा करता हुआ द्वापर है, खड़ा हुआ रूप त्रेता और चलता हुआ रूप कृत है ( उदीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः, २८५ ) | पृथिवी पर असंबाध निवास करने के लिये एक भावना बारंबार इन मंत्रों में प्रकट होती है । वह है पृथिवी के विस्तार का भाव । यह भूमि हमारे लिये उरु-लोक अर्थात् विस्तृत प्रदेश प्रदान करनेवाली हो ( उरुलोक पृथिवी नः कृणेातु ) । द्युलोक और पृथिवी के बीच में महान् अंतराल जनता के लिये सदा उन्मुक्त रहे । राष्ट्र के लिये केवल दो चीजें चाहिए - एक 'व्यच' भौमिक विस्तार और दूसरी मेधा या मस्तिष्क की शक्ति (५३) । इन Marat प्राप्ति से पृथिवी की उन्नति का पूर्ण रूप विकसित हो सकता है । भूमि पर जनों का वितरण इस प्रकार स्वाभाविक रीति से होता है जैसेअश्व अपने शरीर की धूलि को चारों ओर फैलाता है। जो जन पृथिवी पर बसे थे वे चारों ओर फैलते गए और उनसे ही अनेक जनपद अस्तित्व में आए । यह पृथिवी अनेक जनों को अपने भीतर रखनेवाला एक पात्र है ( त्वमस्यावपनी जनानाम्, ६१ ) । यह पात्र विस्तृत है ( पप्रथाना ), अखंड (अदिति रूप) है, और सब कामनाओं की पूर्ति करनेवाला (कामदुधा ) है । किसी प्रकार का कोई न्यूनता प्रजापति के सुंदर और सत्य नियमों के कारण * इसी की व्याख्या ऐतरेय ब्राह्मण के चरैवेति-गान में है— कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर: । . उत्तिष्ठ त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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