SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृथिवीसूक्त - एक अध्ययन ६१ पृथिवी पर सर्वप्रथम पैर टेकने का भाव जन के हृदय में गौरव उत्पन्न करता है । जन की ओर से कवि कहता है— मैंने अजीत, अहत और अक्षत रूप में सब से पूर्व इस भूमि पर पैर जमाया था - जीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम् । ( ११ ) उस भू-अधिष्ठान के कारण भूमि और जन के बीच में एक अंतरंग संबंध उत्पन्न हुआ । यह संबंध पृथिवीसूक्त के शब्दों में इस प्रकार है माता भूमिः पुत्रो अह ं पृथिव्याः । ( १२ ) 'यह भूमि माता है, और मैं इस पृथिवी का पुत्र हूँ ।' भूमि के साथ माता का संबंध जन या जाति के समस्त जीवन का रहस्य है। जो जन भूमि के साथ इस संबंध का अनुभव करता है वही माता के हृदय से प्राप्त होनेवाले कल्याणों का अधिकारी है, उसी के लिये माता दूध का विसर्जन करती है । सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः । ( १० ) 1 जिस प्रकार पुत्र को ही माता से पोषण प्राप्त करने का स्वत्व है, उसी प्रकार पृथिवी के ऊर्ज या बल पृथिवीपुत्रों को ही प्राप्त होते हैं । कवि के शब्दों से- 'हे पृथिवी, तुम्हारे शरीर से निकलनेवाली जो शक्ति की धाराएँ हैं उनके साथ हमें संयुक्त करो' यत्ते मध्य पृथिवि यच्च नभ्य यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः । तासु नो धेहि अभिनः पवस्व माता भूमिः पुत्रो ग्रह पृथिव्याः ॥ ( १२ ) पृथिवी या राष्ट्र का जो मध्यबिंदु है उसे ही वैदिक भाषा में नभ्य कहा है। उस केंद्र से युग युग में अनेक ऊर्ज या राष्ट्रीय बल निकलते हैं। जत्र इस प्रकार के बलों की बहिया आती है तब राष्ट्र का कल्पवृक्ष हरियाता है । युगों से सोए हुए भाव जाग जाते हैं. और वही राष्ट्र का जागरण होता है । afai भाषा है कि जब इस प्रकार के ऊर्जा प्रवाहित हों तब मैं भी उस चेतना के प्राणवायु से संयुक्त होऊँ । पृथिवी के ऊपर आकाश में छा जानेवाले विचार-मेघ वे पर्जन्य हैं जो अपने वर्षण से समस्त जनता को सींचते हैं ( पर्जन्यः पिता स उ नः पितु, १२ ) । उन पर्जन्यों से प्रजाएँ नई नई प्रेरणाएँ लेकर बढ़ती हैं। पृथिवी पर उठनेवाले ये महान् वेग मानसिक शक्तियों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy