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________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका नाड़ीजाल फैल जाता है। पर्वतों और महाकांतारों की भूमियाँ युवकों के पदसंचार से परिचित होकर सुशोभित होती हैं; 'चारिक चरित्वा' का व्रत धारण करनेवाले चरक-स्नातक पुगें और जनपदों में ज्ञान-मंगल करते हैं. और मातृभूमि की समप्र शोभा का आविष्कार करते हैं। - प्रारंभिक भू-प्रतिष्ठा के दिन हमारे पूर्वजों ने मातृभूमि के स्वरूप का घनिष्ठ परिचय प्राप्त किया था । उसके उन्नत प्रदेश, निरंतर बहनेवाली जलधाराएँ और हरे-भरे समतल मैदान,-इन्होंने अपनी रूप-संपदा से उनको आकृष्ट किया ( यस्या उद्वत: प्रवतः सम बहु, २)। छोटे गिरि-जाल और हिमराशि का श्वेत मुकुट बाँधे हुए महान् पर्वत पृथिवी को टेके हुए खड़े हैं। उनके ऊँचे शृंगों पर शिलीभूत हिम, अधित्यकाओं में सरकते हुए हिमश्रथ या बर्फानी गल, उनके मुख या बाँक से निकलनेवाली नदियाँ और तटांत में बहनेवाली सहस्रों धाराएँ, पर्वतस्थली और द्रोणी, निर्भर और झूलती हुई नदी की तलहटियाँ, शैलों के दारण से बनी हुई दरी और कंदराएँ, पर्वतों के पार जानेवाले जोत और घाटे-इन सब का अध्ययन भौमिक चैतन्य का एक आवश्यक अंग है। सौभाग्य से विश्वकर्मा ने जिस दिन अपनी हवि से हमारी भूमि की आराधना की, उस दिन ही उसमें पर्वतीय अंश पर्याप्त मात्रा में रख दिया था। भूमि का तिलक करने के लिये मानो विधाता ने सबसे ऊँचे पर्वत-शिखर को स्वयं उसके मुकुट के समीप रखना उचित समझा । इतिहास साक्षो है कि इन पर्वतों पर चढ़कर हमारी संस्कृति का यश हिमालय के उस पार के प्रदेशों में फैला। पर्वतों की सूक्ष्म छानबीन भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता रही है, जिसका प्रमाण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि देवयुगों में पर्वत सागर के अंतस्तल में सोते थे। तृतीयक युग ( Tertiary Era) के प्रारभ में लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय भूगोल में बड़ी चकनाचूर करनेवाली घटनाएं घटी। बड़े बड़े भू-भाग बिलट गए, पर्वतों की जगह समुद्र और समुद्र की जगह पर्वत प्रकट हो गए। उसी समय हिमालय और कैलाश भूगर्भ से बाहर आए। इससे पूर्व हिमालय में एक समुद्र या पाथोधि था, जिसे वैज्ञानिक 'टेथिसू' का नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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