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________________ पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन प्रकट करने की प्रक्रिया आज भी जारी है। दिलीप के गोचारण की तरह मातृभूमि के ध्यानी पुत्र उसके हृदय के पीछे चलते हैं (यां मायाभिरवचरन्मनीषिणः, १८); और उसकी आराधना से अनेक नए वरदान प्राप्त करते हैं। यह विश्व ऊर्ध्वमूल अश्वत्थ कहा गया है। ऊर्ध्व के साथ ही पृथिवी के हृदय का संबंध है। इसी कारण मातृभूमि के साथ तादात्म्यभाव की प्राप्ति उध्वस्थिति या अध्यात्मसाधना का रूप है। भारतीय दृष्टि से मातृभूमि का प्रेम और अध्यात्म, इन दोनों का यही समन्वय है। . . - मातृभूमि का स्थूल विश्वरूप-पृथिवी का जो स्थूल रूप है, वह भी कुछ कम आकर्षण की वस्तु नहीं है। भौतिक रूप में श्री या सौंदर्य का दर्शन नेत्रों का परम लाभ है और उसका प्रकाश एक दिव्य विभूति है। इस दृष्टि से जब कवि विचार करता है तो उसे पृथिवी पर प्रत्येक दिशा में रमणीयता दिखाई पड़ती है (आशामाशां रण्याम्, ४३)। वह पृथिवी को विश्वरूपा कहकर संबोधित करता है। पर्वतों के उष्णीष से सज्जित और सागरों की मेखला से अलंकृत मातृभूमि के पुष्कल स्वरूप में कितना सौंदर्य है ? विभिन्न प्रदेशों में पृथक् पृथक शोभा की कितनी मात्रा है ?-इसको पूरी तरह पहचान कर प्रसिद्ध करना राष्ट्रीय पराक्रम का आवश्यक अंग है। प्राकृतिक शोभा के स्थलों से जितना ही हम अधिक परिचित होते हैं, मातृभूमि के प्रति उतना ही हमारा आकर्षण बढ़ता है। भूमि के स्थूल रूप की श्री को देखने के लिये हमारे नेत्रों का तेज सौ वर्ष तक बढ़ता रहे, और उसके लिये हमें सूर्य की मित्रता प्राप्त हो (३३)। . चारों दिशाओं में प्रकाशित मातृभूमि के चतुरस्रशोभी शरीर को जाकर देखने के लिये हमारे पैरों में संचरणशीलता होनी चाहिए। चलने से ही हम दिशाओं के कल्याणों तक पहुँचते हैं (स्योनास्ता मा चरते भवन्तु, ३१)। जिस प्रदेश में जनता की पदपंक्ति पहुँचती है, वही तीर्थ बन जाता है। पद-पंक्तियों के द्वारा ही मातृभूमि के विशाल जनायन पंथों का निर्माण होता है, और यात्रा के बल से ही रथों के वर्म और शकटों के मार्ग भूमि पर बिछते हैं (ये ते पन्था बहवो जनायना रथस्य वमानसश्च यातवे, ४७)। चंक्रमण के प्रताप से पूर्व और पश्चिम में तथा उत्तर और दक्षिण में पथों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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