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________________ १४० नागरीप्रचारिणो पत्रिका कुछ ऐसे शब्द आए हैं, जो रथों की व्यूहरचना के पारिभाषिक शब्द हैं। उदाहरण के लिये - ऐकवर्तन (एक मोड़), तेरवर्तन्न (तीन मोड़), पंजवर्तन ( पाँच बार का मोड़ ), शतवर्त्तन (सात मोड़ या घुमाव ) । ये शब्द प्राचीन भारतीय एकावर्तन, त्र्यावर्तन, पंचावत और सप्तावर्तन के ही रूपांतर हैं । उस काल में आधुनिक सीरिया का नाम खुर्री प्रदेश था और खुर्री-मितानी में सैनिकवर्ग के क्षत्रियों के लिये 'मर्यन्नु' शब्द प्रचलित था, जो कि वैदिक मर्य (= वीर ) का पर्याय है । इस प्रकार यह निश्चित होता है कि विक्रम से लगभग पंद्रह शताब्दी पहले सुदूर पश्चिमी एशिया में आर्यवंशीय जातियाँ, आर्यधर्म तथा आर्यभाषाओं का निश्चित और व्यापक प्रभाव था। यह प्रश्न विवादग्रस्त है कि खत्ती और मितानी के श्रार्य सम्राटों का मूल उद्गम कहाँ से था । परंतु कुछ विद्वानों का मत है कि भारतवर्षीय सप्तसिंधु के आर्यों की ही एक शाखा पश्चिम की ओर फैली हुई खत्ती और मितानी की शासक बन गई थी । उन्हीं के प्रभाव से यह सांस्कृतिक संबंध उस समय वहाँ पर स्थापित हुआ । खत्ती, खुरी और हित्ताइत भाषाओं के मूल साहित्य, धर्म और भाषाओं का वैज्ञाविक अध्ययन और देवनागरी अक्षरों में उनका विधिवत् प्रकाशन भारतीय पुरातत्वशास्त्र की आगामी उन्नति और विकास के लिये परम आवश्यक है । हमारे देश के पुरातत्ववेत्ता विद्वान् तब तक संसार के पुरातत्त्ववेत्ताओं में सम्मानित पद नहीं प्राप्त कर सकते जब तक वे इस प्राचीन सामग्री का मौलिक अध्ययन न करने लगे । इसके लिये एक केंद्रीय अनुसंधान-मंदिर की आवश्यकता है, जहाँ पर उफरातु और तिप्रा की अंतर्वेदी में सहस्राब्दियों तक विकसित होती हुई जातियों के प्राचीन साहित्य का पूरा संग्रह हो और विद्वानों को अध्ययन, लेखन और प्रकाशन की सुविधा और प्रोत्साहन मिल सके। राष्ट्र में फिर से सार्वभौम दृष्टिकोण प्रचलित होने के लिये साहित्यिक र सांस्कृतिक क्षेत्र की सार्वभौमता एक अनिवार्य और आवश्यक सीढ़ी है। जिस समय वैदिक आर्य अपने दृष्टिकोण को सुपर्ण की तरह दूर तक फैलाकर 'कृराव' तो विश्वमार्यम्' के वाक्य का उच्चारण करता था, उस समय उसके उस कथन में मिथ्या अभिमान या कोरी अभिलाषा न होकर अपने समय की * जिन्हें हम अँगरेजी के माध्यम से यूटीज और टाइग्रिस कहते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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