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________________ १२२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका यह श्लोक महाराज भोज के श्रृंगारप्रकाश अध्याय २० में भी मिलता है। यहाँ 'शकवधूवैधव्यदीक्षागुरु' शकरिपु अथवा शकारि का ही विशेषण है, क्योंकि सदुक्तिकर्णामृत में उद्धृत अमरु के इससे पूर्व श्लोक में शकरिपु प्रयोग स्पष्ट ही मिलता है। इसलिये यह ज्ञात होता है कि शकवधू० प्रयोग चंद्रगुप्त के लिये एक उचित विशेषण है। फ्लीट-मत माननेवालों से प्रश्न इतने साहित्यिक और ताम्रपत्रादिकों के साक्ष्य के होने पर भी जो महानुभाव चंद्रगुप्त-विक्रम को प्रसिद्ध विक्रम संवत् से संबंध रखनेवाला सम्राट नहीं मानते, उन्हें निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर खोजना चाहिए (१) यदि सवत्-प्रवर्तक साहसांक-विक्रम कोई अन्य व्यक्ति था और चंद्रगुप्त-विक्रम नहीं, तो उसको एक भी मुद्रा आज तक क्यों नहीं मिली ? निश्चय हो उस विक्रम के काल में मुद्राओं पर अक्षरांकित नाम मिलते थे। उतने प्रतापी राजा की मुद्रा अवश्य प्रचलित हुई होगी। (२) पुराणों के श्रीपार्वतीय राजा कौन थे ? हम अपने भारतवर्ष के इतिहास में लिख चुके हैं कि गुप्त ही श्रीपार्वतीय थे। इसका एक प्रबल प्रमाण यह भी है कि गुप्तों की मुद्राओं पर लक्ष्मी अथवा श्री का चिह्न विद्यमान है। इसी का एक और प्रमाण श्रीपर्वत के स्थलमाहात्म्य में है-"गुप्तराज चंद्रगुप्त की कन्या चंद्रावती श्रीशैल के देवता से प्रेम करने लग पड़ी।...अंतत: राजकुमारी ने उससे विवाह किया ।" महाशय बी० वी० कृष्णराव आदि का मत है कि इक्ष्वाकुराजा ही श्रीपार्वतीय थे। उन्हें विचार कर देखना चाहिए कि क्या पुराणों में इतने सुदूर दक्षिण के किसी और राजवंश का उल्लेख भी है या नहीं । ___ * श्रीकृष्ण शास्त्री का लेख, एनुअल रिपोर्ट ऑव दि आर्कियोलॉजिकल डिपार्टमेंट, सदन सर्किल, मद्रास, १९१७-१८ में उद्धृत । + इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, कलकत्ता, पृ०८०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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