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वैद्य-सार
टीका-शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध विषनाग, शुद्ध धतूरे के बीज, सोहागे का फला, धई के फूल, लौंग, अतीस, समुद्रशोष के बीन ये सब बराबर बराबर लेवे और अभ्रक भस्म सबसे आधा तथा अभ्रक भस्म से आधा समुद्रफेन मिलावे फिर सबको एकत्रित करके तीन दिन तक धतूरे की जड़ के काढ़े से घोंटे और गोली बनावे। बेलगिरी अथवा जायफल या अतीस के अनुपान से शहद के साथ देवे तो इससे प्रवाहिका-ग्रहणी शांत होवे। यह प्रहणी-कपाटरस पूज्यपाद स्वामी ने कहा है।
८९--शूलादौ ताल कादिरसः तालकं रसकमातिकाशिला गंधसूतमपि साम्यमानतः । सर्वमेव खलु.चूर्णितं पचेत् चाटरूपसुरसावारिणा ॥१॥ मर्दितं तदनु ताम्रहेमजौ संपुटे तिपितसूतसाम्यको। मृत्पटेन पारवेष्ट्य पाचितो व्योषनागररसैविभावितः ॥२॥ तालकादिरसमस्ति सः स्वयं भास्करस्तु कुरुते खरो यथा। एष एव विनियोजितो द्रुतं रोगराजतमसो विनाशकः ॥३॥ चित्रका करसेन योजितो घोरशूलकफवातनाशनः ।
नागराज जयपालमिश्रितोऽजीर्णगुल्मकृमिनाशने परः ॥४॥ टोका-शुद्ध तकिया हरताल, शुद्ध खपरिया, शुद्ध सोनामक्खी, शुद्ध मेनशिल, शुद्ध गंधक, शुद्ध पारा ये सब वस्तुएँ बराबर बराबर लेकर सबको एकत्रित कर अड़सा, तुलसी एवं अदरख के स्वरस से अलग अलग घोंटे, जब घुट जावे तव पारे के बराबर ताम्बे की भस्म तथा सेोने की भस्म डाले और सबको सुखाकर संपुट में बंदकर कपड़मिट्टी करके भस्म कर लेवे। जब स्वांग शीतल हो जाय तब निकालकर त्रिकुट और सोंठ के काढ़े की अलग अलग भावना देवे और सुखाकर रख लेवे-स यह तालकादिरस सि हो गया समझे। यह रस युक्तिपूर्वक प्रयोग किया जाय तो जिस प्रकार प्रखर सूर्य अन्धकार का नाश करता है, उसी प्रकार यह तालकादिरस अनेक रोगों को नाश करनेवाला होता है तथा विशेषकर यह रस चित्रक और अदरख के रस के साथ देने से भयंकर शूल अथवा कफजन्य और बातजन्य अनेक रोग शांत होते हैं। सोंठ, घी, शुद्ध जमालगोटा के साथ देने से अजीर्ण, गुल्मरोग और कृमिरोग भी शांत होते हैं।
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