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________________ वैद्य-सार ८७- शीतज्वरे श्वेतभास्कररसः एकं च रुद्रबीजं च दश भागं विषोपलं । क्षीरेण संमर्द्यः दिनमेकं निरंतरं ॥ १ ॥ गुलं वाकां क्षिप्त्वा मूत्रायां रसगोलकं । मूषायाश्च निःसार्य दद्यात् लघुपुटं पचेत् ॥२॥ पश्चादुद्धृत्य तद्भस्म काकमाची रसेन तु । मुद्र- प्रमाणगुटिकां दद्यात् क्षीरेण मिश्रिताम् ॥३॥ शीतज्वरहरचैव रसोऽयं श्वेतभास्करः । क्षीरान्नं भोजयेत् पथ्यं लवणाम्र' च वर्जयेत् ॥४॥ टीका - एक भाग शुद्ध पारा तथा दश भाग शुद्ध संखिया इन दोनों का मिला कर खरल में अकोड़े के दूध में एकदिन मर्दन करे तथा सुखा कर एक कांच की भूषा (शीशी ) में भरकर कपड़मिट्टो करके वालुकायंत्र में पकावे । जब स्वांग शीतल हो जाय तब निकाले तथा कूपी से निकाल कर मकोय के रस से मर्दन करके एक लघु पुट देवे और इसको एक मूंग के बराबर एक पाव गोदुग्ध के अनुपान से सेवन करावे ते। यह शीतज्वर को दूर करता है । इसके ऊपर दूध भात का तथा और भी दूध के भोजन का पथ्य देवे, नमक और खटाई खाने का परित्याग कर देवे । ग्रहणीरोगे ग्रहणीकपाटरसः दरदामृतान्तरबीजं टंकणधातकी । लवंगातिविषावार्धिशोकबीउ ' समांशकम् ॥ ॥ सर्व समं च तस्यार्धं गगनं च नियोजयेत् । तस्याधं फेनं संयाज्य मर्दयेत् दिवसत्त्रयम् ॥२॥ अत्तूरमूलक्काथेन व कुर्य्याश्च बुद्धिमान् । लेोऽयं ग्राह्यवस्तूनामेकेन मधुमिश्रितम् ॥३॥ लिहेत् प्रवाहे ग्रहणीनाशनो नात्र संशयः । ग्रहणीकपाटनामोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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