SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० वैद्य-सा १० - पित्तरोगे चन्द्रकलाधररसः प्रत्येकं तालमानेन - सूतकांताभ्रभस्मकं । समं समस्तैर्गधञ्च कृत्वा कज्जलिकां त्र्यहं ॥१॥ मुस्तादाडिमदूर्वाकैः केतकीस्तनवारिभिः । सहदेव्या कुमार्याश्च पर्पटप वारिणा ॥२॥ एषां रसेन क्वाथैर्वा शतावर्या रसेन च । भावयित्वा प्रयत्नेन दिवसे दिवसे पृथक् ॥३॥ तिकागुडूविकासवं पर्पटोशीर माधवी । श्रीगंधं निखिलानां तु समानं सूक्ष्मचूर्णकम् ॥४॥ तद्राक्षादिकषायेण सप्तधा परिभावयेत् । सर्वेषां परिशोष्याथ वटिकाश्चणकैः समाः ॥५॥ घरचन्द्रकलानाम - रसेद्रः परिकीर्तितः । सर्वपित्तगदध्वंसी बातपित्तगदापहः ॥ ६ ॥ अन्तर्बाह्यमहाताप-विध्वंसनमहाधनः । ग्रीष्मकाले शरत्काले विशेषेण प्रशस्यते ॥७॥ हरते चाग्निमाद्यं च महातापज्वरं जयेत् । बहुमूत्र हरत्याशु स्त्रीणां रक्तमहास्रवम् ॥ ८॥ ऊर्ध्वगं रक्तपित्तं च रक्तवांतिविशेषकं । मूत्रकृच्छ्राणि सर्वाणि नाशयेनात्र संशयः ॥ ॥ टोका - शुद्ध पोरा १ भाग, अभ्रक भस्म १ भाग -कांतलौह भस्म १ भाग तथा शुद्ध गंधक ३ भाग लेने चाहिये । पहले पारा और गंधक को तीन दिन तक कज्जली बनावे, फिर उसमें अभ्रक भस्म तथा कांतलौहभस्म मिलाकर उसको खरल में डालकर नागरमोथा, अनार की छाल, दूर्वा, केवड़े का दूध तथा सहदेवी, घीकुमारी, पित्तपापड़ा और शतावरी के रस से अथवा काढे से अलग-अलग एक-एक दिन भावना देवे । भावना देने के बाद कुटकी का सत्त्व, गुर्च का सत्व, पित्तपापड़ा, खस, माधवीलता और चन्दन इन सब का चूर्ण करके उसी औषधि के बराबर लेकर मिला देवे--और उसमें द्राक्षादि के काढ़े से सात भावना देवे तथा चना के बराबर गोली बांध लेवे। यह चन्द्रकलाधर सेवन करने से सब प्रकार के पित्तजन्य रोग तथा बात-पित्तरोग, बाह्याभ्यन्तर के महाताप को शांत करने के लिये घनघोर मेघ के समान है। ग्रीष्म ऋतु एवं शरद ऋतु में विशेष लाभप्रद है । यह रस अग्निमांद्य को तथा महाताप सहित ज्वर को जीतता है और हरएक प्रकार की थकावट, बहुमूत्र, स्त्रियों का रक्तप्रदर, उर्ध्वगरक्तपित्त, रक्त की कमी, और मूत्रकृच्छ्रता इत्यादि रोगों को दूर करता है, इसमें संशय नहीं करना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy