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अष्टांग आयुर्वेद का विस्तार से वर्णन है, जिसमें निदान, रोगों के लक्षण, पथ्यापथ्य, अरिष्ट लक्षण (रोगी के मरण के पहले उत्पन्न होने वाले चिह्न) आदि का वर्णन है । सारांश, सब प्रकार के वैद्यकोपयोगी विषयों का वर्णन है । जिस प्रकार ये अंग, छिन्न-भिन्न हो गये हैं ★ और काल-दोष से दुर्लम और अप्राप्य भी हैं, उसी प्रकार वैद्यक प्रन्थों का मी परम्परानुसार मिलना कठिन हो रहा है
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इस बार श्रीगोम्मटेश्वर महामस्तकाभिषेक के उत्सव से लौटते समय मूडबिद्री के 'सिद्धांत - भवन' में वहाँ के अध्यक्ष ने मुझ को कई ग्रन्थ कन्नड लिपि के दिखलाये थे तथा पढ़कर भी सुनाये थे । खेद के साथ लिखना पड़ता है कि हम जैनों की साहित्यिक रुचि के कारण अभी वे ग्रन्थ जिह्वा पर कहने लायक ही बने हुए हैं । वे ग्रन्थ दस-पन्द्रह हजार श्लोक संख्या तक के हैं । समन्तभद्रस्वामी एवं पूज्यपादस्वामी जैसे महान् आचार्यों के बनाये हुए वैद्यक - प्रन्थ इनमें हैं । ये महानुभाव जैन - साहित्य में उच्चतम कोटि के आचार्य गिने जाते हैं ।
अभी सोलापुर से श्रीवद्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने 'कल्याणकारक' ग्रन्थ का अनुवाद कराके छपाया है । यह ग्रन्थ भी अत्युत्तम है । इस के प्रकाशित होने से जैनेतर विद्वानों का ध्यान भी जैन - आयुर्वेद की तरफ आकृष्ट हुआ है। इसकी भूमिका तथा सम्पादकीय वक्तव्य मनन करने योग्य है, तथा जैन वैद्यककार आचार्यों की कृतियों पर अच्छा प्रकाश डालता है ।
जैन वैद्यक की खास विशेषता यह है कि इसमें स्वार्थ को ही मुख्य स्थान नहीं दिया गया है, अर्थात् अपने क्षणभंगुर शरीर की रक्षा के लिए अन्य जीवों के शरीरावयवों को उदरस्थ कर लेने का उपदेश या विधान इसमें नहीं है । जहाँ अन्य वैद्यक - प्रन्थों में मल-मूत्र, अस्थि- चर्म, रक्त-मांस आदि का स्पष्ट विधान है, यहाँ तक कि एकाध स्थानों पर गो-रक्त, गोमांस, मनुष्यावयव तक के योग वैद्यकप्रन्थों में आये हैं-वहाँ शहद तक का त्याग जैन आचायों बतलाया है। आसव, अरिष्ट, जिनमें एकेंद्रिय तो क्या, दो इन्द्रिय, जीव तक आँखों से दिखाई पड़ते हैं, त्याज्य बतलाये गये हैं । अवलेह आदि की मर्यादा बतलाई गई है, जिनमें कभी कभी आधुनिक यंत्रों (खुर्दबीन आदि) से साक्षात् दो इन्द्रिय वाले जीव दिखाई पड़ते हैं । इसी कारण से जैन आचार्यों ने तरल पदार्थों द्वारा चिकित्सा के स्थान पर रसादि चिकित्सा बौद्धकाल तथा जैनकाल में इस रस - चिकित्सा का प्रचार प्राचीन ग्रन्थ इसके साक्षी हैं कि रस-चिकित्सा विशेष लाभ
पर अधिक जोर दिया है और और उन्नति भी विशेष हुई है । दायक है :
अल्पमात्नोपयोगित्वादरुचेरप्रसंगतः ।
क्षिप्रमारोग्यदायित्वादद्यैषधेभ्योऽधिको रसः ॥
ऐसा अनेक आचार्यों ने लिखा है । सारांश में वैद्यक-साहित्य में जैनाचार्यों का खास स्थान है। योगरत्नाकर में मृतसंजीवनी वटिका के संबंध में "पूज्यपादैरुदाहृता” ऐसा पाठ आता है,
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