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वैद्य-सार
को जड़ की छाल का काढ़ा सोंठ, मिर्व, पोपन के सहित ऊपर से पिलावे तथा अनार पोड़ा (गन्ना) दही-भात तथा ठंढा जल का पथ्य दे। इसका सेवन करना चाहिये, सिर पर पानी डालना चाहिये।
६७ -प्रमेहे द्वितीयः पंचवक्ररसः मृतं लौहाभ्रकं तुल्यं धात्रीफलनिजद्रवैः। सप्ताहं भावयेत् खल्वे रसोऽयं पंचवक्रकः ॥१॥ मासमेकं रसं खादेत् सर्वमेहप्रशांतये । महानिबस्य बीजानि पूर्ववतंडुलोदकैः ॥२॥ सघृतैः पाययेश्चानु ह्यसाध्यं साधयेत् क्षणात् ।
अनेन चानुपानेन पंचवकरसो हितः ॥३॥ टीका-अभ्रक भस्म तथा कांतलौह भस्म इन दोनों को बराबर बराबर लेकर आंवले के फल के रस में सात दिन तक खरल में लगातार घोंटे, तब यह पञ्चवक्र नाम का रस तैयार होता है। यह रस एक माह तक सेवन करने से सब प्रकार का प्रमेह शांत करता है। इसका अनुपान वकायन के बीजों की गिरी को चावल के पानी में पीस कर उसमें घी डाल कर ऊपर से पीना चाहिये तथा इस रस की एक एक रत्ती के प्रमाण से शहद या मिश्री की चाशनी में खाना चाहिये । इससे असाध्य प्रमेह भी शान्त हो जाता है।
६८-श्वासादौ शिलातलरसः तालं द्वादशभागं च चतुर्भागा मनःशिला। त्रिकंटकरसैर्भाव्यं वालुकायंत्रपाचितम् ॥१॥ यामद्वयात् समुद्धृत्य तत्तुल्यं च कटुनयम्। निर्गुण्डीमूलचूर्ण तु सर्वतुल्यं प्रदापयेत् ॥२॥ शिलातलरसो नाम मासैकं श्वासकासजित् ।
योगोऽयं सर्वश्रेष्ठः स्यात् पूज्यपादेन भाषितः॥३॥ टीका-हरताल तबफिया भस्म १२ भाग तथा शुद्ध मैनशिल ४ भाग इन सब को गोखरू के रस से भावना देवे तथा सुखा कर वालुका यंत्र में दो पहर तक पावन करके बाद निकाल- लेवे, उसमें सबके बराबर सोंठ, मिर्च और पीपल मिलाकर फिर सबके बराबर सम्भालू (निर्गुण्डी ) की जड़ का चूर्ण मिलावे, बाद इसको अनुपान विशेष से ,
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