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वैद्य - सार
६५ -- सन्निपाते सन्निपात-विध्वंसकरसः
सूतं गंधं समं शुद्ध तालकं माक्षिकं तथा । मृतताम्राभ्रकं बोलं विषं धत्तूरबीजकं ॥१॥ arrai चाहिंगुपाठा गिपटोलकम् । बंध्यानिंनत्रयं शुण्ठीकंदलांगुलिजं समम् ॥२॥ सिन्दुवारद्रवैः सर्व मद्य जंबीरजेद्रवैः । harsaमतां कुर्यात् सिन्दुवारद्रः बढीम् ॥३॥ अत्युग्रसन्निपातोत्थं सर्वोपद्रवसंयुतम् । निहन्यादनुपानेन दशमूलाई केण वै ॥ ४ ॥ कषायेण न संदेहः पथ्यं दध्योदनं हितम् । रसो विध्वंसका नाम सन्निपातनिकृन्तनः ॥५॥
टीका - शुद्ध पारा, शुद्धगन्धक, हरताल भस्म, सोनामक्खीभस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध बोल, शुद्ध विषनाग, शुद्ध धतूरा के बोज, सज्जोखार, जवाखार, सुहागा, बचदूधिया, हींग, सोनापाठा, कांकड़ासिंगी, परवल के पत्ता, बांझ ककोड़ा, नोम, सोंठ, लांगली का कंद इन सब को लेकर कूट पोस कर कपड़छान करके नेगड़ को पत्ती के रस में तथा जंबीरी नीबू के रस में घोंट कर नेगड़ की पत्ती के रस में चना के बराबर गोली बनावे | यह गोली अत्यन्त बढ़ा हुआ जो सन्निपात है उसको भो शान्त करता है। अनुपान में दशमूल का क्वाथ या प्रदरख रस या क्वाथ देना चाहिये ।
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६६ - सन्निपाते पंचवक्ररसः
शुद्ध सूतं विषं गंधं मरिचं टंकणं करणा । मर्दयेत् धूर्तजद्रायैः दिनमेकं विशोषयेत् ॥१॥ पंचवक्ररसो नाम द्विगुंजं सन्निपातजित् । अर्कमूलकषायेण सव्योषमनुपाययेत् ॥२॥ दाडिमैरिदंडं च दधिभोजनशीतलं ।
पूर्ववत्स्थाप्यते पथ्यं जलयोगं च कारयेत् ॥३॥
टीका - शुद्धपारा, शुद्ध गन्धक, शुद्धविष, काली मिर्च, सुहागे का फूला और पीपल इन सब को धतूरे के रस में एक दिन घोंट कर सुखा लेवे, यह पञ्चवक्र रस दो दो रती के प्रमाण से सेवन करने पर अनेक प्रकार के सन्निपातों को जीतनेवाला है। इसका अनुपान प्राक
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