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वैद्य-सार
४१.
६३ - कासादौ गगनेश्वररसः
'प्रश्नकं वत्सनाभं च सूतं गंधक । लौहभस्म ताम्र भस्म व्योषधरबीजकम् ॥१॥ बिल्वमज्जा वा श्राह्मा धातुअतिबिडंगकम् । सर्व तुल्ये क्षिपेत् खल्वे मद्यं भृंगरसैदिनम् ॥२॥ विजयारससंयुक्त यानमेकं विमदयेत् । गुंजाइयं हित् तौद्रः पंचकासयापहः ॥३॥ गुल्मशूलादिश्चाम्लपित्तविनाशनः । सन्निपातं बातरोगं प्रहण्यामयशोधनम् ॥४॥ गगनेश्वरनामायं रसोऽयं सर्वरोगजित् । कासादिविषयं पूज्यपादेन भाषितः ॥५॥
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टीका - अभ्रक भस्म, विषनाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सुहागा, लौहभस्म, ताम्र भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, धतूरे के शुद्ध बीज, बेलगिरी, सफेदवच, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर और विडंग सब बराबर-बराबर लेकर खल में डाल कर भंगरा के रस में मर्दन करे, फिर भांग के रस में घोंटे और जब तैयार हो जाय, तो दो-दो रती के प्रमाण से शहद के साथ सेवन करे तो पांच प्रकार की खांसी, तय, गुल्मशूल, अम्लपित्त, सन्निपात, वातरोग और संग्रहणो इत्यादि को लाभ करनेवाला है । यह गगनेश्वर रस सम्पूर्ण रोगों को जीतनेवाला है तथा खांसी और विष के दोष को नाश करनेवाला उत्तम योग है।
६४ -- शीतज्वरे कारुण्य - सागररसः पारदं वत्सनाभं व शुद्धा चैव मनःशिला । हरितालं शुभं गंधं निर्गुडी कारवल्लिका ॥१॥
श्वासां सदा कुर्यात् वटीं सर्षपमालिकाम् । मृद्वीकाजीरकेणापि प्रदद्यात् भिषगुत्तमः ॥२॥ शीतज्वरहरो नाम कारुण्यरससागरः । सर्वशीतज्वरध्वंसी पूज्यपादेन भाषितः ॥३॥
टोका - पारा, विषनाग, मैनशिल, हरिताल भस्म और गन्धक इन पांचों को शुद्ध कर कजली बना कर नेगड़ तथा करेले के रस में इनकी सरसों बराबर गोली बनावे और यह गोली सुबह शाम मुनक्का तथा जीरे के साथ देवे तो सब प्रकार का शीतज्वर दूर होवे ।
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