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( ग ) जा रहे हैं। आयुर्वेद का आठ अंगों में विभक्तीकरण ही उसकी वैज्ञानिकता को सिद्ध करता है। ये आठों अङ्ग इस प्रकार हैं:
१ शल्य-चीर-फाड़ (ऑपरेशन) का इलाज । २ शालाक्य-गर्दन से ऊपर की बीमारी, जैसे कान, नाक, गला, आँख, दाँत और
सिर के रोगों का इलाज। ३ कायचिकित्सा-सम्पूर्ण शरीर में होनेवाले बुखार, दस्त, कास, श्वास, प्रमेह एवं .
जलोदर आदि रोगों का इलाज । ४ भूतविद्या-गृहदोष, भूत-प्रेत, पिशाच आदि का उपाय । ५ कौमारभृत्य-बच्चों के रोगों का इलाज, उनका लालन-पालन, माता के रोग तथा
उसके दुग्ध के शोधन-बर्द्धन आदि का उपाय । ६ अगदतंत्र-सर्प, बिच्छू, बर्र, गृहगोधिका आदि जंगम विषों का तथा संखिया,
धतूरा, अफीम आदि स्थावर विषों के लक्षण और उनसे प्रसित
रोगियों के विष दूर करने का उपाय | ७ रसायनतंत्र-वृद्ध, बाल, निर्बल, इन्द्रियहीन, बुद्धिहीन व्यक्तियों का बल तथा
आयु बढ़ाने के उपाय। ८ वाजीकरणतंत्र-वीर्यहीन या दुष्टवीर्य, नपुंसक और बलहीन पुरुषों के वीर्य
___ शोधन, वीर्यवर्द्धन, संतानोत्पत्ति आदि के उपाय । अब पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि इन आठ अङ्गों के बाहर कौन सी चीज बाकी रह जाती है ?
आयुर्वेद में शरीर-रचना मुख्यतया वात, पित्त और कफ से मानी गई है और इन तीन दोषों की (कार्य के अनुसार इनकी गणना-मल और धातु में भी की गई है) रचना पंचतत्त्वों (पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश) से हुई है, जो शरीर की बनावट के कारण हैं और उसके पोषण और वर्द्धन में सहायक है। इन पंचतत्त्वों से ही मीठा, खट्टा, लवण, कड़वा (मिरच
आदि) तिक्त (नीम, चिरायता आदि), कसैला (हड़ आदि) इन छः रसों का जन्म होता है। संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब इन छः रसों के अन्तर्गत आ जाते हैं। इनका भी पंचतत्त्वों से ही पोषण होता है। सारांश, पंचतत्त्वों से ही शरीर बना है और इन्हीं से उसका पालनपोषण, और वर्द्धन भी होता है। उनमें न्यूनाधिकता होने से शरीर में रोगोत्पत्ति होती है।
और उसकी न्यूनाधिकता ठीक करने के लिए षट् रस ही उपयोगी होते हैं। जिस तत्त्व की शरीर में न्यूनाधिकता होती है उसको ठीक करने के लिये उसी रस का उपयोग तथा त्याग किया जाता है। संक्षेप में यही व्याधियाँ हैं, और यही चिकित्सा का मूल मंत्र है। जैनमत के अनुसार ये सब पदार्थ पुद्गल के अन्तर्गत आ जाते हैं और बहुत अच्छी तरह घटित होते हैं। इस विषय को लेकर एक स्वतंत्र पुस्तक बनाई जा सकती है।
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