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________________ वैद्य-सार १४-अग्निमांद्ये अग्निकुमाररसः रसगंधकयोः कृत्वा कजली तुल्यभागयोः । पादांशममृतं दत्त्वा शुक्तिभस्मसमांशकम् ॥१॥ हंसपादीरसैः सम्यङ् मर्दयित्वा दिनत्रयम् । स्थूलगोलांस्ततः कृत्वा परिशोष्य खरातपे ॥२॥ निरुध्य बालुकायंत्र क्रमवृद्धेन वन्हिना । पचेदेकमहोरात्र ततः शीतं विचूर्णयेत् ॥३॥ पादांशममृतं दत्त्वा मर्दयेदाकद्रवैः । नियुज्यस्थालिकामध्ये ततोऽन्यस्थालिकादरे ॥४॥ पलार्धममृतं दत्वा रसस्थाली च तन्मुखे । न्युब्जां दत्त्वा दृढं रुद्ध्वा चुल्यामारोप्य यत्नतः ॥५॥ यामं प्रज्वालयेदग्निं विचूर्ण्य तदनंतरम् । करंडके विनिक्षिप्य स्थापयेति यत्नतः ॥६॥ रसोह्यग्निकुमाराख्यो पूज्यपादेन भाषितः । हन्यादेषोऽग्निमांद्य ज्वरगमखिलं वातजातां क्षयाति ॥ शोफाढ्यं पांडुरोगं कफजनितगदान :प्लीहगुल्मौ गदाति । सर्वाङ्गीणं च शूलं जठरभवरुजं खंजतां पङ्गलत्वम् । सर्वाश्चासाभ्यरोगान् जिन इव दुरितं रक्तगुल्मं वधूनाम् ॥७॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक ये दोनों बराबर बराबर लेकर उनकी कजली बनावे तथा पारे से चौथाई भाग शुद्ध विष लेवे और विष के बराबर शुक्तिका भस्म लेकर सबको तीन दिन तक हंसराज के रस से घोंटे, तत्पश्चात् उसका गोला बना कर तेज घाम में सुखावे, सूख जाने पर बालुकायन्त्र में रख कर क्रम से मृदु, मध्यम और तीव अग्नि से एक दिन-रात पकावे फिर ठंढा होनेपर सबका चूर्ण कर उससे चौथाई शुद्ध विषनाग मिलाकर अदरख के रस के साथ घोंटे तथा उसको एक कोरी हंडी के अंदर रख देवे या लेप कर देवे। बाद दूसरी हंडी में२ तोला विषनाग के चूर्ण को पानी से गीला कर सब में छिड़क देवे। पहली हंडी पर दूसरी हंडी का उल्टी कर (मुख से मुख मिलाकर) रख दे। दोनों के मुख को कपड़मिट्टी से बंद कर और सुखाकर चूल्हे पर रख एक प्रहर तक भौच देवे और {दा होने पर चूर्ण करके शीशी में रख लेवे, बस ऐसे हो अग्निकुमार रस तैयार हो जाता है। यह पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ रस है। यह अग्नि की मन्दता, सर्व प्रकार के ज्वर, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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