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________________ [ 8 ] विस्मयकारक था। वे गंधक, शोरा आदि के तेजाब (Acid) जस्ता, लोहा, सीसा आदि के ऑक्साइड (Oxide) तथा कारबोनेट और साल्फाइड आदि तैयार करते थे। इन रसायनों के द्वारा वे निराश रोगियों को पुनः स्वस्थ एवं वृद्धों को जवान बनाते थे। सूर्य की किरणें रोगोत्पादक कीटाणुओं को नष्ट करती हैं, इस बात को भारतीय पहले ही से जानते थे। वासरोग के लिये धतूरे का धुआँ पीने की विधि यूरोपियनों ने भारतीयों से ही सीखी है। 'विश्वबंधु' ५, अगस्त १९३४ के एक विद्वत्तापूर्ण लेख में लाहौर के कविराज श्रीहरिकृष्ण सहगल ने इस बात को सिद्ध कर दिखा दिया है कि हाल में अमेरिका में पुरुषसंयोग के विना ही जिन पिचकारियों द्वारा स्त्री गर्भवती बनाई गई है, उन पिचकारियों का उद्गम-स्थान भारतवर्ष ही है। भारतीय रसायन के द्वारा कृत्रिम सुवर्ण बनाना भी भली भांति जानते थे। इन सब बातों का विशद वर्णन इस छोटे वक्तव्य में नहीं हो सकता है। इस संबंध में अंग्रेजी पढ़ेलिखे विद्वानों को The Ayurvedic System of Medicine by Kaviraj Nagendra Nath Sen, A. History of Hindu Chemistry by Praphulla Chandra Roy, The Positive Sciences of the Ancient Hindus by Brajendra Nath Seal आदि पुस्तकों को अवश्य पढ़ना चाहिये। संसार में जीवन से बढ़ कर प्यारी वस्तु दूसरी नहीं है। यही कारण है कि क्षुद्र से क्षुद्र कृमि-कीट से लेकर मनुष्य तक एवं जीर्ण रोगी से लेकर तन्दुरुस्त जवान तक सभी इस जीवनरज्जु को अधिक लम्बी करने के उद्योग में सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। जिस जीवन से ऐहिक और पारलौकिक दोनों सिद्धियों मिलती हैं. उसे दीर्घकाल तक स्वस्थ तथा कार्यक्षम बनाये रखने के लिये ही प्राचीन आर्यों ने आयुर्वेद का अनुसंधान किया था। हिन्दू, जैन एवं बौद्ध इन तीनों भारतीय प्रधान धर्मों के आयुर्वेदीय ग्रन्थों को मिलाने से हमारा आयुर्वेदीय साहित्य बहुत बढ़ जाता है। पूर्व में आयुर्वेद यहाँ की एक सर्वसुलभ विद्या थी। इसीलिये आज भी बड़े-बड़े सर्जनों एवं वैद्यों से आराम नहीं होनेवाले कई एक कठिन रोगों को एक दिहातो अशिक्षित सामान्य व्यक्ति अच्छा कर देता है। भारत की उर्वरा भूमि ने इसके लिये सर्वत्र बहुमूल्य ओषधियाँ भी जुटा रखी है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि हमारे पूर्वजों ने स्पष्ट घोषित कर दिया है कि जो व्यक्ति जहाँ पैदा हुआ हो, उसे वहीं की ओषधियाँ अधिकालाभकारी होती हैं। इसके लिये केवल एक ही दृष्टांत पर्याप्त है कि कुनाइन सल्फेट आदि ओषध इंगलैण्ड आदि शीतप्रधान देशों में जितना काम करते हैं, उतना उष्णप्रधान हमारे भारतवर्ष में नहीं कर पाते। अस्तु, लेख बहुत बढ़ रहा है, अतः पाठकों का ध्यान प्रस्तुत विषय पर आकर्षित करता हूँ। ___ यह बात यथार्थ है कि प्रस्तुत 'वैद्यसार' के प्रयोग आचार्य पूज्यपाद के स्वयं के नहीं है। फिर भी इसमें सन्देह नहीं है कि इन प्रयोगों का आधार पूज्यपादजी का वही मूल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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