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________________ [ ट ] प्रयुक्त होते थे । व्रणवस्ति, वस्तियंत्र, पुष्पनेत्र, (लिंग में औषध प्रविष्ट करने के लिये), शलाकायंत्र, नखाकृति, गर्भशंकु, प्रजननशंकु (जीवित शिशु को गर्भाशय से बाहर करने के लिये), सर्पमुख (सीने के लिये) आदि बहुत से यन्त्र हैं । व्रणों और उदरादि संबंधी रोगों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की पट्टी बांधने का भी वर्णन किया गया है। गुदभ्रंश के लिये चर्मबंधन भी उल्लेख है । मनुष्य या घोड़े के बाल सीने आदि के लिये प्रयोग में आते थे । दूषित रुधिर निकालने के लिये जोंक का भी प्रयोग होता था। जोंक की पहले परीक्षा कर ली जाती थी कि वह विषैली है अथवा नहीं। टीके के समान मूर्छा में शरीर का तीक्ष्ण अस्त्र से लेख कर दवाई को रुधिर में मिला दिया जाता था । गति व्रण (Sinus) तथा अर्बुदों की चिकित्सा में भी सूचियों का प्रयोग होता था । त्रिकूर्चक शस्त्र का भी कुष्ठ आदि में प्रयोग होता था । आजकल लेखन करते समय टीका लगाने के लिये जिस तीन-चार सुइयों वाले औजार का प्रयोग होता है, वह यही त्रिकूर्चक है । वर्तमान काल का (Tooth-elevator) पहले दंतशंकु के नाम से प्रचलित था। प्राचीन आर्य कृत्रिम दाँतों का बनाना और लगाना तथा कृत्रिम नाक बनाकर सोना भी जानते थे । दाँत उखाड़ने के लिये एनीपद शस्त्र का वर्णन मिलता है। मोतियाबिंद (Cataract) के निकालने के लिये भी शस्त्र था । कमलनाल का प्रयोग दूध पिलाने अथवा वमन कराने के लिये होता था, जो आजकल के ( Stomach Pump) का कार्य देता था ।” [ पृष्ठ १२० – १२२ ] इसी प्रकार भारतीय प्राचीन सपचिकित्सा और पशुचिकित्सा भी अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। सिकन्दर का सेनापति नियार्कस लिखता है कि यूनानी लोग सर्पविष दूर करना नहीं जानते, परन्तु जो मनुष्य इस दुर्घटना में पड़े, उन सब को भारतीयों ने दुरुस्त कर दिया । दाहक्रिया एवं उपवास चिकित्सा से भी भारतीय पूर्णतया परिचित थे । शोथरोग में नमक देने की बात भी भारतीय चिकित्सक हजार वर्ष पूर्व जानते थे । हमारे पूर्वजों का निदान उच्चकोटि का था । 'माधवनिदान' आज भी संसार में अपना खास स्थान रखता है। शुद्ध जल का संग्रह और व्यवहार कैसे किया जाय, औषध द्वारा कुओं का पानी साफ करना, महामारी फैलने पर कृमिनाशक औषधों के द्वारा स्वच्छता रखना आदि बातों का उल्लेख 'मनुस्मृति' में स्पष्ट मिलता है। आयुर्वेद में शरीर की बनावट, मीतरी अवयवों, मांसपेशियों, पुट्ठों, धमनियों और नाड़ियों का भी विशद वर्णन उपलब्ध होता है । वैद्य निघंटुओं में खनिज, वनस्पति और पशुचिकित्सा - संबंधी औषधों का बृहद् भाण्डार है। भारतीय आयुर्वेद - विशारदों को शरीर विज्ञान का ज्ञान भी पर्याप्त था । अन्यथा वे स्त्री, पुरुष, पशु, पक्षी आदि की चित्ताकर्षक मूर्त्तियों को नहीं बना सकते थे। भारतीयों का रासायनिक ज्ञान आशातीत * वाइज ; हिस्ट्री आफ मैडिसिन ; पृष्ठ ६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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