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________________ बड़े सर्जनों की अपेक्षा एक भारतीय वैद्य अधिक रखता है। इस संबंध में हमारे पूर्वजों ने पर्याप्त परिश्रम किया है। आयुर्वेद में नाड़ीज्ञान तो अपना एक खास स्थान रखता है। इस संबंध में 'द्विवेदी-अभिनन्दन ग्रन्थ' में प्रकाशित आयुर्वेदपंचानन पं० जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल के द्वारा लिखित भारतीय चिकित्सा-शास्त्र की विशेषता-नाड़ी-परीक्षा- शीर्षक लेख अवश्य पठनीय है । चरकसुश्रुतसदृश बहुमूल्य चिकित्सासंबंधी ग्रन्थ प्राचीन पाश्चात्य चिकित्सासाहित्य में एक भी उपलब्ध नहीं है इसीलिये प्रो० विलसन, सर विलीयम हंटर आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय शल्यचिकित्सा, रसायनशास्त्र, धातृशास्त्र, सूचिकाभेदन, सर्पचिकित्सा, पशुचिकित्सा आदि विषयों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा कर आयुर्वेद चिकित्सा-प्रणाली को ही संसार की आदिम चिकित्सा प्रणाली माना है।... .. हमारे पूर्वज शल्यचिकित्सा में पूर्ण निष्णातथे, इस बात को प्रमाणित करने के लिये मैं रायबहादुर महामहोपाध्याय श्रीमान् गौरीशंकर हीराचंद ओझा की मध्यकालीन भारतीय संस्कृति' से कुछ अंश यहां पर उद्धृत किये देता हूँ। इससे शायद हमारी उन्नति-प्राप्त प्राचीन शल्यचिकित्सा से अनभिज्ञ वर्तमान प्रगतिशील पाश्चात्य शल्यचिकित्सा के अनन्य भक्त भारतीय विद्वानों की आँखें खुलेंगी। हाँ, मैं इस संबंध में इतना और कह देना चाहता हूँ कि जो प्राचीन शल्यचिकित्सा के विषय में विशेष देखनो चाहें वे 'नागरी-प्रचारिणी पत्रिका', भाग ८; अंक १, २ में प्रकाशित 'प्राचीन शल्यतन्त्र' शीर्षक लेख अवश्य देखें। ____ "चीर फाड़ के शस्त्र साधारणतया लोहे के बनाए जाते थे, परन्तु राजा एवं सम्पन्न लोगों के लिये स्वर्ण, रजत, ताम्र आदि के भी प्रयुक्त होते थे। यन्त्रों के लिये लिखा है कि वे तेज खुरदरे, परन्तु चिकने मुखवाले, सुदृढ़, उत्तम रूपवाले और सुगमता से पकड़े जाने के योग्य होने चाहिये। भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये शस्त्रों की धार, परिमाण आदि भिन्न-भिन्न होते थे। शस्त्र कुंठित न हो जाय, इसलिये लकड़ी के शस्त्रकोश (cases) भी बनाए जाते थे, जिनके ऊपर और अन्दर कोमल रेशम या ऊन का कपड़ा लगा रहता था। शस्त्र आठ प्रकार के छेद्य, भेद्य, वेध्य (शरीर के किसी भाग में से पानी निकालना), एष्य (नाड़ी आदि में व्रण का ढूँढ़ना), आगे (दाँत या पथरी आदि का निकालना), विस्त्राव्य (रुधिर का विस्त्रवण करना), सीव्य (दो भागों को सीना), और लैख्य (चेचक के टीके आदि में कुचलना) हैं। सुश्रुत ने यंत्रों (औजार, जो चीरने के काम में आते हों) की संख्या १०१ मानी है; परन्तु वाग्भट्ट ने ११५ मानकर आगे लिख दिया है कि कर्म अनिश्चित हैं, इसलिये यन्त्र संख्या भी अनिश्चित है वैद्य अपने आवश्यकतानुसार यंत्र बना सकता है। शस्त्रों की संख्या भिन्न-मिन्न विद्वानों ने मिन्न-भिन्न मानी है। इन यंत्रों और शस्त्रों का विस्तृत वर्णन भी उन ग्रन्थों में दिया है। अश, भगंदर, योनिरोय, मूत्रदोष, आर्त्तवदोष, शुक्रदोष आदि रोमों के लिये भिन्न-भिन्न यन्त्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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