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वैद्य-सार
१५६-श्वासे इन्द्रवारुणी-योगः इन्द्रवारुणिका-मूलं देवदारुकटुवयं ।
शर्करासहितं खादेदूर्ध्वश्वासहरं परं ॥१॥ टीका-इन्द्रायण की जड़, देवदार चंदन, सोंठ, काली मिर्च और पीपल इन सबको मिश्री की चासनी के साथ सेवन करने से उर्ध्वश्वास भी अच्छी हो जाती है।
१५७-पांडुरोगे मण्डूरत्रिफलावसु . मंडूरं चूर्णयेत् श्लक्ष्णं त्रिफलावसुगुणे पचेत् । यूषणं त्रिफला मुस्तां विडंग चव्यचित्रकं ।।१।। दावी प्रन्थिं देवदारु तुल्यं तुल्यं विचूर्णयेत्। सर्वसाम्यं च मण्डूरं पाकान्ते मिश्रयेत्ततः॥२॥ भक्षयेत् कर्षमात्रं तु जीर्णगे तकभोजनं । पाण्डुशोथं हलीमं च उरुस्तभं च कामलां ॥३॥
नाशयेन्नान संदेहः पूज्यपादेन निर्मितम् । टीका-मंडूर को लेकर आठ गुणा त्रिफला में पकावे अर्थात् शुद्ध करे तथा फिर मंडूर की भस्म कर लेवे और सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेरा, आँवला, नागरमोथा, वायविडंग, चव्य चितावर, दारुहल्दी, पीपरामूल, देवदार, चंदन ये सब बराबर-बराबर लेवे तथा सबके बराबर मंडूरभस्म लेवे और फिर पाक कर के उसमें मिलाकर गोली बांध लेवे। इनको योग्य मात्रा से योग्य अनुपान से सेवन करावे और दवा (पच जाने ) पर मही के साथ भोजन करावे। इससे पांडुरोग, शोकरोग, हलोमक रोग, उरुस्तंभ, कामला रोग शांत होते हैं, इसमें संदेह नहीं है।
१५८-बिवन्धे चिंतामणि-गुटिका मरिचं पिप्पली शुण्ठी पथ्याधात्री समं समं । सौवर्चलं समं ग्राह्य टंकणं च द्विभागकं ॥१॥ शुद्धहिंगुलषड्भागं जयपालः सर्वतुल्यकः। जंबीरनिधुनीरेण मर्दयेदिवसद्वयम् ॥२॥
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