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वैद्य-सौर
सिभ्यते रसराजेन्द्रो बलिपूजाभिरचयेत् । अनुपानं तदा देयं मरिचं नागरं तथा ॥५॥ विक्षारं पंचलवणं रामठं चित्रमूलकं। अजमोदं जीरकैकं मासं चूर्णचतुष्टयम् ॥ ६ ॥ चूर्णयित्वा तथा सर्व भक्षयेश्चानुवासरं । भक्षयेत् पर्णखंडेन कदुष्णेनापि वारिणा ॥७॥ प्राणनिर्गमकालेऽपि रक्षकः प्रणिनां तथा । ज्वरे त्रिदोषजे घोरे सन्निपाते च दारुणे ॥ ८॥ प्लीहायां गुल्मवाते च शूले च परिणामजे। मंदाग्नौ ग्रहणीरोगे ज्वरे चैवातिसारके || ९ ॥ अयं प्राणेश्वरो नाम भवेन्मृत्युविवर्जितः ।
सर्वरोगविषघ्नोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥१०॥ टीका-पारे की भस्म तथा माक्षिक भस्म, अभूक का सत्व (भस्म होने के बाद सत्व निकाला जाता है ) तामे की भस्म कमसे कम १-२-३-४ भाग लेवे, तथा सफेद मुसली के स्वरस में एक भाग शुद्ध गन्धक मिला कर खरल में डाल कर दोपहर तक घोटे तथा घोंट कर सुखा कर कांच की शीशी में बन्द कर शीशी का मुंह बन्द कर देवे और
और शीशी को चारों तरफ से खड़िया मिट्टी से सात वार लेपन कर शीशी को बालुका यंत्र में रख देवे तथा उसको वालू से पूरी भर देवे और उस को भट्ठी में रख कर चार पहर तक पकावे। जब पाक हो जावे तब सिद्ध होना जाने और अपने इष्ट देवता का पूजन करके उसका सेवन करे। इस के खाने के बाद नीचे लिखे चूर्ण को बना कर ४ मासा की मात्रा से अनुपान रूपसे देवेः -
काली मिर्च, सोंठ; तीनों क्षार ( सज्जीक्षार जवाखार टंकणक्षार ), पांचों नमक ( काला नमक, सेंधा नमक, विड नमक, समुद्र नमक, साम्हर नमक ), हींग, चित्रक, अजमोदा, सफेद जीरा, ये सब बराबर-बराबर भाग लेकर चूर्ण बनावे । इसकी मात्रा ४ माशे की है।
यह चूर्ण भी पान के रस के साथ तथा थोड़े गर्म जल के साथ देवे। यह प्राणेश्वर रस प्राणान्त काल में भी प्राणों की रक्षा करनेवाला है।
त्रिदोषज ज्वर के भयंकर सन्निपात, प्लीहा, गुल्म रोग, बाल-रोग, परिणामज शूल, मन्दाग्नि, ग्रहगी रोग, ज्वर और अतिसार में यह प्राणेश्वर रस मृत्यु से छड़ानेवाला संपूर्ण रोगों को नाश करनेवाला पूज्यपाद स्वामी ने कहा है।
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