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वैद्य-सार
टीका - शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, तामे की भस्म, लजनू के बीज, आँवले की उरगठी, . बहेडे की छाल, निशोध, हर्र, बहेरा, आँवला, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, चित्रक, शुद्ध सिंगरफ सुहागे को भस्म और शुद्ध जमालगोटा ये सब बराबर-बराबर भाग लेकर थूहर के दूध से और दंती के काढ़े से एक-एक बार मर्दन करे और एक-एक दिन धूप में सुखावे । बेर बराबर बराबर गोली बना गुड के साथ एक-एक गोली प्रतिदिन खाये तो सर्व प्रकार का ज्वर शांत हो तथा विशेष अनुपान द्वारा खाये तो जुखाम का ज्वर भी शांत हो जाता है। यह विद्याधर रस पूज्यपाद स्वामी ने कहा है ।
१३७ - गुल्मादी अग्निकुमाररसः
जयपालशुभगंधरसाभ्रकाणां सवर्बलं तुला कंटुल यस्य | मूत्रेण च षोडशभागमाने संमद्यं सवं च दिनत्रयं च ॥ १ ॥ afai विधाय वदप्रमाणां सेव्या वटी चोष्ण जलानुपानात् । एषा प्रयुक्ता सहसा निहंति सुरेच्य चादौ मलजातमेव ॥२॥ गुल्मं पडुविबद्धशूलबद्धोदरादींश्च जलोदरादीन् ।
कुमारो मुनिना प्रयुक्तः प्रकाशितो दीप इवधिकारे ॥३॥
टीका - शुद्ध जमालगोटा, शुद्धगंधक, शुद्ध पारा, अभ्रकभस्म, काला नमक, सोंठ, मिच, पीपल इन सब को एकत्रित कर के सब दवाइयों से सोलह भाग गोमूत्र लेकर तीन दिन तक बराबर घोंटे और बेरी के बराबर गोली बनावे तथा गर्म जल से सेवन करे तो इससे पहिले संचित हुए मल को निकाल कर गुल्म रोग, यकृत् रोग, पांडुरोग, बिन्दतो, शूलरोग, बद्धोदर, जलोदर इत्यादि संपूर्ण पेट के रोग शांत होते हैं । यह अग्निकुमार रस पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ रोगरूपी अन्धकार को नाश करने के लिये दीपक के समान है ।
१३८ - सन्निपाते यमदंडरसः
बंगस्य सप्तभागः स्यात् सप्तभागरसस्तथा । एकीकृत्य रसो मद्य श्वार्धश्च खलु गंधकः ॥१॥ अर्धभागं तथा तौलं वत्सनाभश्च तत्समः । सर्वमैकीकृतं चूर्ण धूर्तद्रावेण मर्दयेत् ॥२॥
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