SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ वैद्य-सार १२६-ग्रहण्यादौ कनकसुन्दररसः हिंगुलं मरिचं गंधं पिप्पली टंकणं विषं । कनकस्य च वीजानि समाशं विजयाद्रवैः ॥१॥ मद्य येद्याममात्रं तु चणमात्रा वटी कृता । भक्षयेद्गुंजयुग्मं तु ग्रहणीनाशने परः ॥२॥ अग्निमांद्य ज्वरं शीघ्रमतीसारविनाशनः। कनकसुन्दरसश्चासौ पूज्यपादेन भाषितः ॥३॥ टीका-शुद्ध सिंगरफ, काली मिर्च, शुद्ध गंधक, पीपल, सुहागे की भस्म, शुद्ध विषनाग, शुद्ध धतूरे के बीज ये सब बराबर-बराबर लेकर भांग के स्वरस से चार पहर तक मर्दन करे और चना के बराबर गोली बांधे। दो-दो रत्ती अनुपान-विशेष से सेवन करे तो ग्रहणी को लाभ होता है तथा मंदाग्नि, ज्वर, अतीसार को भी लाभ हो। कनकसुन्दर रस पूज्यपाद स्वामी ने कहा है। १३०-मन्दाग्न्यादौ अमृतगुटिका त्रिकटु सूतगंधं च ग्रन्थिकं चव्यचित्रकं । अमृतं लवणं चैव भृङ्गस्य रस-मर्दिता ॥१॥ एषा चामृतगुटिका च कृतवह्निविवर्धना । अमृता गुटिका नाम विंशतिश्लेष्तरोगजित् ॥२॥ अशीतिवातजान् रोगान् नाशयेन्नात्र संशयः। विधं नाशयेच्छीघ्र पूज्यपादेन भाषिता ॥३॥ टीका-तोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, पीपरामूल, चाव, चित्रक, शुद्ध विषनाग और संधानमक ये सब बराबर-बराबर भाग लेकर भंगरा के रस से घोंटे और गोली बांध लेवे। यह गोली अनुपान-विशेष से दी जावे तो बीस प्रकार के कफरोग शांत हो, तथा अग्नि को बढ़ानेवाली, अस्सी प्रकार के वातरोगों को नाश करनेवाली और विबंध को नाश करनेवाली यह अमृतगुटिका पूज्यपाद स्वामी ने कही है। १३१-सर्वरोगे मरीचादिवटी मरिचं नागरं नाभित्रितयं तत्समं तथा । पिप्पली ताम्रभस्मानि प्रत्येकं सममानकम् ॥२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy