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________________ ७८ वैद्य-सार महारक्तप्रवाहे च गंधकेन समं पिबेत् । तक्रण सहितं पीत्वा चातिसारं निकृन्तति ॥१२॥ अर्कदुग्धसमैः लेपो वृश्चिकाणां विषंहरेत् । गुटिका केवला च स्यात् नित्यज्वरप्रणाशिनी ॥१३॥ नारिकेलोदकैः लेपात् पुरुषव्याधिनाशिनी | ऊषणैः मधुपुष्पैस्तु संनिपातांस्त्रयोदशान् ॥१४॥ मासमेकं प्रयोगेण सर्वव्याधिहरा परा। वटी प्रभावतीनाम्ना पूज्यपादेन भाषिता ॥१५॥ टीका-हल्दी, नीम की पत्ती, छोटी पीपल, काली मिर्च, नागरमोथा, वायविडंग, सोंठ, चित्रक, शुद्ध गंधक, शुद्ध पारा, शुद्ध विषनाग, सोनापाठा, बड़ी हर का बकला इन सबको बराबर बराबर लेकर बकरी के मूत्र से घोंट कर चना के बराबर गोली बना छाया में सुखावे | इस गोली को गर्म जल से सेवन करे तो तीव्र अजीर्ण को नाश करती, दो दो गोली गर्म जल से सेवन करे तो विषूचिका की शांति, पाँच पाँच गोली सेवन करे तो मकड़ी का का हुआ विष शांत होता है। विस्फोटक तथा व्रण इत्यादि में इसके लेप करने से अथवा इसको खिलाने से लाभ होता है। स्त्री-दुग्ध के साथ आँख में अञ्जन करने से नेत्र के पटलरोग की शांति होती है। अदरख के रस के साथ अञ्जन करने से रतौंधी, नेत्रांधता इत्यादि शांत होती है। गोमूत्र के साथ सेवन करने के तिजारी इत्यादि विषमज्वर नष्ट होता है। गुड़ के पानी के साथ सेवन करने से बातदोष दूर होता है । तत से उत्पन्न हुआ व्रण भी शांत होता है। इसको शिर में लेप करने से शिर का शूल जाता रहता है। स्त्री के दूध के साथ अञ्जन करने से आँखों का स्राव ठीक होता है। शहद के साथ तामे के पत्र पर घिसने से नेत्र का पिच्छिल दोष शांत होता है, केला के कन्द के पानी के साथ घिस कर लगाने से नेत्र की फुली, माड़ा जाला सब शांत हो जाता है । कंसोदन के रस के साथ आँख में लगाने से आँख का कांच दोष शांत होता है। बकरी के मूत्र के साथ लेप करने से नेत्र की सूजन शांत होती है। अकौवा के दूध के साथ लेप करने से मकड़ी का काटा हुआ विष शांत हो जाता है। इस गोली को अनुपान विशेष के साथ सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र (सुजाक) शांत होता हैं। शुद्ध गंधक के साथ सेवन करने से रक्त का कैसा ही प्रवाह हो बन्द हो जाता है । छाँछ के साथ पीने से अतीसार दूर होता है। भकौवा के दूध के साथ लेप करने से बिच्छू का काटा हुआ विष शांत हो जाता है। इसकी एक-एक गोली अनुपान के बिना सेवन करने से भी ज्वर निर्मूल हो जाता है। इस गोली को नारियल के पानी के साथ इन्द्रिय पर लेप करने से नपुंसकता दूर होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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