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कामाङ्कश रस-इस रस में व्योमसिन्दूर लौहसिन्दूर, वनमस्म (हीरा भस्म) और स्वर्ण मस्म आदि उत्तमोत्तम पदार्थ डाले गये हैं। कैसा भी क्षीण व्यक्ति इस रस के प्रयोग से बलवान् बन जाता है। यह रस स्तम्भन के लिए भी अनुपम योग्यता रखता है। एक तो वैसे ही हीरे की शक्ति बलवती होती है, किन्तु उसमें तो स्वर्ण आदि हृदय और मस्तिष्क को पुष्ट करने वाली रसायन रूप चीजें डाली गई हैं। वास्तव में इस रसको सेवन करनेवाला पुरुष शत या सहल स्त्रियों को तृम कर सकता है, और तभी उसको शान्ति मिल सकती है।
प्रभावती वटी-इसके गुणों को देखकर आश्चर्य होता है। प्रत्येक रोग पर अनुपान योग से ही इसका प्रयोग है। आँखों की बीमारियों में नेत्रों में आँजने से, व्रणों और ग्रन्थियों में लेप करने से, ज्वर, शूल आदि में खाने से बहुत लाभ होता है। नेत्ररोग, उदररोग, रक्तविकार, मूत्रकृच्छ, षण्डता, सन्निपात आदि कौन सी बीमारियां हैं, जो इससे दूर न होती हों। ___ त्रिलोकचूडामणि रस-तूतिया की भस्म शायद ही किसी रस में डाली जाती हो किन्तु इसमें तूतिया का प्रयोग है। लाङ्गली गुजा आदि का भी सम्बन्ध है, हुलहुल, नागदौन और धतूरे आदि की भावना देकर इसको इतना शक्तिशाली बनाया गया है कि यह वटबोज-प्रमाण मात्रा में देने पर भी सन्निपात में पड़े हुए मरणासन्न रोगी को यमराज से छुड़ा लेता है। डाकिनी-शाकिनी, प्रेत-राक्षस आदि को बाधाएँ भी इसके अस्तित्व में नहीं रहने पाती। इसी तरह के और भी अनेक योग हैं, जो अनुभव में लाने योग्य हैं । हम वैद्य-संसार सेखास कर जैन वैद्यों से प्रार्थना करते हैं कि वह इस पर पारश्रम करके कुछ योग प्रचार में लावें, जिस से जनता का उपकार हो, तथा जैन वैद्यक ग्रंथों की तथा उनके रचयिता जैन
आचार्यों की धाक संसार में पुनः उच्च पद प्राप्त करे। ___इस भूमिका के लिखने में मेरे सहयोगी वैद्यराज पं० जयचन्द्रजी आयुर्वेदाचार्य, प्रधानवैद्य, जैन औषधालय, कानपुर ने सहायता दी है, इसके लिये उनका आमारी हूँ। अन्त में श्रीजिनेन्द्र देव से प्रार्थना है कि
सर्वे वै मनुजाः भवन्तु सुखिनो हयैश्वर्ययुक्ताः सदा पूर्णरोग्यसमन्विताः नयपराः दीर्घायुषः श्रीयुताः सद्धर्माचरणे सदैव निरताः धैर्यानुकम्पान्विताः सत्यक्षांतिविवेकदानविमलाचारप्रभाशालिनः ॥
विनीत
कन्हैयालाल जैन, कानपुर
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