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________________ श्रेष्ठगोत्र और समरसिंह । " तीर्थ का संघ निकालना चाहता हूँ । आचार्यश्रीने फरमाया कि 1 शुभस्य शीघ्रं ', काल का क्या भरोसा न जाने कब आ दबावे । आत्मकल्याण-साधन का कार्य जितना जल्दी हो सके उतना ही अच्छा । आशाधरने चाहपूर्वक बड़ी तैयारियों की । देश और विदेश से अपने साधर्मियों को बुलवाकर बहुत बड़ा संघ निकाला । सिद्धसूरि के वासक्षेप पूर्वक शुभमुहूर्त में रवाना होकर संघ शत्रुंजय और अर्बुदराज की यात्रा निर्विघ्नतया करता हुआ वापस आया । संघपतिने सातों क्षेत्रों में उदारतापूर्वक बहुत द्रव्य व्यय किया । असंख्य द्रव्य धार्मिक शुभ कार्यों में व्ययकर अपार पुण्यउपार्जन कर अन्त में आशाधरने शांतिपूर्वक देह त्यागी । उसका अनुज ' देशल' था । जिसकी कीर्त्ति विदेशों तक फैली हुई थी । यह व्यापार में सिद्धहस्त और द्रव्य के अधिकार में कुबेर था । इसकी दानवृति कल्पवृक्ष को भी लजाती थी । यद्यपि इसने मरुभूमि को छोड़कर अन्य जगह वास किया तथापि देव गुरु और धर्मपर दृढ़ होनेके कारण वहाँ भी इसने उचित सन्मान पाया । आशावर के बाद घर के कार्य का सारा उत्तरदायित्व भी इन्हीं के कंधोंपर था । शाह देशल के तीन पुत्र थे । धन्य है ऐसे पिता को १ अथ निखिलदेशेभ्यः संघं संमील्य शुद्धधीः । स शत्रुंजयमहातीर्थप्रमुखेषु तीर्थेषु महतीं कुर्वन् जिनधर्मप्रभावनाम् । यात्रां निर्माय निर्मायः संघेशत्वमवाप यः ॥ ९०० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat सप्तसु ॥ ८९९ ॥ www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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