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________________ समरसिंह । वि. सं. १३३० के फाल्गुन शुक्ला ९ शुक्रवार के शुभ दिन अनेक प्राचार्यों के समक्ष पार्श्वनाथ भगवान् के मन्दिर में प्राचार्यपद मुनि बालचन्द्रजी को दिया गया। इस महोत्सव में आशाधरने एक लक्ष दीनार खर्च किये थे । जनता आशाधर की भूरि भूरि प्रशंसा कर उसे द्वितीय वस्तुपाल या तेजपाल की उपमा देने लगी । आचार्यश्री देवगुप्तसूरिने अपने स्थानापन्न आचार्यश्री सिद्धसूरि को कार्य सौंपने के थोड़े दिन पश्चात् ही स्वर्गधाम को गमन किया । आशाधरने प्राचार्य श्री सिद्धसूरि को वंदन कर एक बार अनुनय अभ्यर्थना की कि प्राचार्यवर मुझे धर्मदेशना देकर आत्मकल्याण का कोई सरलमार्ग बताइये । आचार्यश्री को तो इसमें कोई आपत्ति थी ही नही । वे उसे धर्मोपदेश सुना कर दान, शील, तप और मावना पूजा प्रभावना वगैरह के विषय में विशेष विवेचन करने लगे । प्रसंग आने पर उन्होंने शत्रुजय तीर्थ के महात्मय का भी विवेचन किया और कहा कि यात्रा से कितने कितने ऐहलौकिक और पारलौकिक सुख प्राप्त होते हैं ? भाशाधर के कोमल और निर्मल हृदयपर इस बात का विशेष प्रभाव पड़ा । उसने गुरुराज के समक्ष अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट की कि मैं मी श्री शत्रुजय १ साधुराशाधरः संघवात्सल्यं विदधे तथा । मस्मरन् वस्तुपालस्य सर्वदर्शिनिनो यथा ॥ २६० ॥ श्री देवगुप्ता गुरवः क्रमेण त्रिदिवं पताः । तत्संस्कारधरायां तु स्तूपं साधुरकारयत् ॥ २६१ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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