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________________ शत्रुंजय तीर्थ । करने में काफी हैं | भद्रबाहुस्वामी कृत आचारांगसूत्र की नियुक्ति' में यह उल्लेख है कि इस तीर्थ की यात्रा करने से दर्शन की शुद्धि होती है । इसके अतिरिक्त शत्रुंजय महालय और शत्रुंजय कल्प आदि ग्रंथो में इस तीर्थ की प्राचीनता के प्रचुर प्रमाण प्राप्त हो सकते हैं । अतः इस तीर्थ की प्राचीनता में किसी भी प्रकार के संदेह को स्थान नहीं मिल सकता । सर्वदा से जैनी इस तीर्थ की सेवा और उपासना करते आए हैं और अब भी वर्तमान में करते हैं । शत्रुंजय तीर्थ के उद्धारक और उपासक - उपर्युक्त प्रमाणों से जब यह सर्वथा सिद्ध है कि यह तीर्थ बहुत ही प्राचीन है तब यह भी स्वयंसिद्ध हैं कि इतने लम्बे अरसे तक इस तीर्थ की एक ही प्रकार की नवीनता नहीं रह सकती । समय समय पर इस तीर्थ के उद्धार भी होते रहे हैं । इस अवसर्पिणी काल की अपेक्षा प्रस्तुत महान् तीर्थ के उद्धार करनेवाले बड़े बड़े कई भाग्यशाली महापुरुष हो गये हैं जिन्होंने यह कार्य करके अपने नाम को आज पर्यंत विश्वविख्यात कर लिया । भरत और सागरें सदृश चक्रवर्ती तथा रामचन्द्र और पाण्डव १ आचारांगसूत्र द्वितीय स्कन्ध पंद्रहवां अध्ययन की नियुक्ति देखिये. २ वि. सं. ४७७ में धनेश्वरसूरि द्वारा रचित शत्रुंजय महात्म्य देखिये. ३ भद्रबाहुसूरि बज्रस्वामी और पादलिप्तसूरि रचित संक्षिप्त शत्रुंजय कल्प देखिये | ४ ' भूमीन्दुः सगरः प्रफुलत गरत्रदामरामप्रथः - श्री रामोऽपि युधिष्टोऽपि च www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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