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ऐतिहासिक प्रमाण
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॥ संवत् १३७१ वर्षे माह सुदि १४ सोमे... राणक श्री... महीपाल देवमूर्त्तिः संघपति श्रीदेसलेन कारिता श्रीयुगादिदेवचैत्ये ॥
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इनके अतिरिक्त एक शिलालेख श्री सिद्धगिरि के उच्च शिखर पर और आज भी दृष्टिगोचर हो रहा है । यह लेख समरसिंह के देहान्त के बाद वि. सं. १४१४ में समरसिंह और उनकी धर्मपत्नीकी मूर्त्ति ( युगुल ) पर, जो समरसिंह के होनहार पुत्ररत्न सालिग और सज्जनसिंहने करवा के आचार्यश्री कक्क
१ वि० सं० १५१६ चैत्र शुक्ल ८ रविवार को देसलशाह के वंश में शिवशंकर धर्मपत्नी देवलदेने उपकेश गच्छाचार्य कक्कसूरि के उपदेश से वाचनाचार्य वित्तसार को सुवर्णाक्षरों के कल्पसूत्र की प्रति दान दी थी । उस प्रति की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समरसिंह के ६ पुत्र थे । प्रशस्ति के आरम्भ में अर्थात् ६ वें श्लोक से १७ वें श्लोक तक इस का वर्णन है । जो इतिहासिक रास संग्रह प्रथम भाग के पृष्ट २ से ४ तक है । इस ग्रंथ के संशोधक स्वर्गस्थ जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वर और प्रकाशक यशोविजय जैन ग्रंथमाला – भावनगर है । श्लोक ये हैं
पुत्र नायन्द इति प्रसिद्धस्तदङ्गज श्रजड इत्युदीर्णः । सुलक्षणो लक्षणयुक् क्रमेण गुणालयौ गोसल - देसलौ च ॥ श्री देसलाद् देसल एव वंशः ख्यातिं प्रपन्नो जगतीतलेऽस्मिन् । शत्रुंजये तीर्थवरे विभाति यन्नामस्त्वादि कृतो बिहारः ॥ तत्सूनवः साधु गुणैरुपेतास्त्रयोऽपि सद्धर्मपरा बभूवुः । तेष्मादिमः श्री सहजो विवेकी कर्पूरधारा बिरुद प्रसिद्धः ॥
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