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________________ ૨૦૧ समरसिंह. कारण से कहा गया है कि इस पृथ्वीपर अनेक संघपति तो अवश्य उत्पन्न हुए हैं किन्तु हे वीर समरसिंह ! आप के मार्ग का कोई अनुसरण न कर सका । श्री आदिजिन का उद्धार, प्रत्येक नगर के नृपति का सामने आकर मिलना और सोमेश्वर नगर में बिना विघ्न प्रवेश ये कार्य अवश्यमेव अद्वितीय हुए। आप की यह धवलकीर्ति जैसी प्रसारित हो रही है वैसी किसी अन्य की नहीं हुई । " देवपत्तन में भी अवारित दान देकर जिनमन्दिर में साप्ताहिक महोत्सव तथा सोमेश्वर की पूजा की गई। मुग्धराज से घोड़ा और सरोपाव प्राप्त कर हमारे चरितनायक सं० देखलशाह सहित पार्श्वप्रभु को वंदन करने के लिये अजाधर ( अजार ) की ओर पधारे। ये पार्श्वनाथ समुद्रमार्ग से पर्यटन करने वाले तरीश को आदेश कर समुद्र से बाहर निकले थे तथा तरीश द्वारा - स्थापित जिन चैत्य में विराजमान थे । वहाँ महापूजा कर महा1 ध्वजा देकर देसलशाह कोडीनार की ओर चले । कोडीनार अधिष्ठायक देवी की मूर्ति का कर्पूर, कुंकुम आदि से पूजन किया गया तथा एक महाध्वजा भी चढ़ाई गई । इस देवी का विस्मय १ तथा चोकम् - नैतस्मिन् कतिनाम सपतय क्षोणितले जज्ञिरे । किन्त्वेकोऽपि न साधु वीर समर ! त्वन्मार्गमन्वग् ययौ ॥ श्रीनाभेय जिनोद्धृतिः प्रतिपुरं तत्स्वामिनोऽभ्यागतः । श्री सोमेश्वरपुर प्रवेश इति मा कीर्तिर्नवा वल्गति ॥ . नाभिनंदनोद्वार प्रबंध ( प्रस्ताव ५ ठोक ६८४ ) www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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