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________________ २०३ प्रतिष्टा के पचात् । संघ सिन्धु स्थान स्थान पर ठहरता था, पैर पैर पर पादचर चलते थे । मनुष्यों और घोड़ों की भीड़ के कारण आने जाने के रास्ते रुके हुए थे। जिन शासन की विजय वैजंती फहरा रही थी। सोमेश्वरदेव के दर्शन कर कबडीबार जलनिधि को अवलोकन कर संघ प्रियमेन से उतरा । चंद्रप्रभु की पूजा कर, कुसुम करंडा पूजा रच जिन भवन में उत्सव किया गया। शिव देवलमें पचरंगी महा ध्वजा दी गई। प्रबंधकारों का कथन है कि मुग्धराज नृप के पत्र को देख कर हमारे चरितनायकजी देवपत्तनपुर की ओर सिधारे । मार्ग में भीघाम, वामनपुरी (वणथली ) आदि सब स्थानों में चैत्यपरिपाटी पूर्वक महोत्सव मनाया गया | सोमेश्वर नरेश परिवार सहित संघ से सामने आ कर समरसिंह से मिले। दोनोंने परस्पर मधुरालाप द्वारा अपनी मेंट को चिरस्मरणीय किया। संघपति देसलशाहने हमारे चरितनायक को आगे किया । मापने देवालय और संघ सहित द्वारों पर तोरण और पताकायुक्त देवपत्तनपुर में प्रवेश किया। सोमेश्वरदेव के समक्ष एक प्रहरतक सब रहे। सम्पति, शालिवाहन, शिलादित्य और पामराज्य आदि राजा तथा इस कृतयुग में उत्पन्न हुए अनेक धनीमानी जैनों एवं चौलुन्य कुमारपाल राजा भादि भी जिस कार्य को न कर सके वह कार्य कलिकाल में देसल के भाग्य से हो गया। श्रीजिन शासन और ईश शासन के पारस्परिक स्वाभाविक वैमनस्य को दूर कर परस्पर प्रीतिमय मार्ग का उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित किया गया । इसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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