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________________ १७६ समरसिंह. ( मंडप) के सम्मुख बलानक मण्डप का उद्धार भी करवाया है । तथा तात्कालीन पृथ्वी पर विचरते हुए अरिहंतों का नया मन्दिर भी उनके पीछे करवाया है। आचार्यश्री को उपरोक्त सूचनाएं की तथा यह भी बताया कि स्थिरदेव के पुत्र शाह लंदुकने भी चार देवकुलिकाएं करवाई हैं । जैत्र और कृष्ण नामक संववियोंने जिनबिंब सहित पाठ श्रेष्ठ देहरियाँ भी करवाई हैं। शाह पृथ्वीमट (पेथड़ ) की कीर्ति को प्रदर्शित करनेवाले सिद्धकोटाकोटि चैत्य जो तुर्कोने गिरा दिया था उस का उद्धार हरिश्चन्द्र के पुत्र शाह केशवने कराया है । इसी प्रकार देवकुलिकाओं का लेप आदि जो नष्ट हो गया था उस का उद्धार भी पृथक पृथक भाग्यशाली श्रावकोंने करा लिया है । कहने का अभिप्राय यह है कि आचार्यश्री ! अब इस तीर्थ पर ध्वंशित भाग कोई नहीं रहा है सब उद्धरित हो गए हैं तथा नये की तरह मालूम होते हैं । इस कारण अब केवल कलश, दंड और दूसरे सर्व अहंतों की प्रतिष्टा करवाना ही शेष रहा है। __ शाह देसलने श्रेष्ठ सूरिवर, ज्योतिषी और श्रावकों आदि को १-वि. सं. १५१७ में भोजप्रबंध मादि के कर्ता श्री रत्नमन्दिर गणि यशो. विजय ग्रंथमाला द्वारा प्रचशित — उपदेश तरंगिणी' के पृष्ट १३६ और १३७ में उल्लेख करते हैं कि योगिनीपुर ( दिली ) से १ लाख ८० हजार यवनों की सेना जब गुजरात प्रान्त में पहुंचो तो म्लेच्छोंने संबंधी पेथड़शाह और झांझगशाह द्वारा कराए हुए सुवर्ण के खोल से मैंढे हुए इस मन्दिर के देखा तो वे शत्रुजय गिरिपर चढे और उन्होंने जावशाह द्वारा स्थापित प्रतिमा को तोड डाला। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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