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छट्ठा अध्याय
प्रतिष्टा ।
यह सुनकर हमारे चरितनायक अपने पिताश्री सहित आचार्य श्री सिद्धसूरिजी को वन्दन करने के लिये पोषधशाला में पधारे। विधिपूर्वक वंदना करने के पश्चात् आपने कहा कि आचार्यवर ! आपने अपने उपदेशरूपी जल से हमारी आशारूपी जतिका का सिंचन किया वह अंकुरित तो पहले ही हो गई थी अब वह लतिका आप के उपदेशामृत द्वारा निरन्तर सिंचन द्वारा खूब बढ़ी जिस के प्रताप से बिंद को हम मूल स्थान में रखवाने को सफल हुए हैं । अब आप से यही विनम्र निवेदन है कि प्रतिष्टा रूपी प्रसाद का दान कर हमारे मनोरथों को शीघ्र पूर्ण करिये । मुख्य मन्दिर के शिखर का उद्धार छेदक ( भंग ) से कलश पर्यंत परिपूर्ण करवा लिया गया है । इस के अतिरिक्त दक्षिण दिशा में अष्टापद् के आकार का चौबीस ' जिनेश्वरों युक्त नया चैत्य भी करवाया गया है ।
पूर्वजों के उद्धार के स्मरणार्थ श्रेष्ठिवर्य त्रिभुवन सिंहने
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