SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० समरसिंह प्रकार से सम्पादन करा सके। अतः इस समय चिंता करना न्यायसंगत नहीं क्योंकि इस से कुछ फल सिद्ध नहीं हो सकेगा। अब तो धर्म-मर्मज्ञ व्यक्तियां का यही प्रथम और प्रमुख कर्त्तव्य है कि इस तीर्थ के उद्धार के उपाय का अनुसंधान करे । इसी विचार में जिनशासन का श्रेय है। सूरिजी के इस सारगार्भत, मार्मिक और हृदयस्पर्शी उपदेश का प्रभाव इतना अच्छा पड़ा कि देशलशाह के अन्तस्तल में उद्धार कराने के विचाररूपी अंकुर सत्वर प्रस्फुटित हुए। देशलशाहने सूरिजी से अर्ज़ किया कि यद्यपि मेरे पास भुजबल, पुत्रबल, धनबल, मित्रबल और राजबल तक विद्यमान है परंतु इतनी सामग्री के होते हुए भी ऐसे महान कार्य को सिद्ध करने के लिये गुरुकृपा की भी आवश्यक्ता अवश्य रहती है । यदि आप सदृश महात्माओं की मुझ पर शुभ दृष्टि हो तो मैं विश्वास दिला सकता हूँ कि उद्धार का कार्य कराने में मैं अवश्य नाम का भागी हो कृतकृत्य हूँगा। सूरिजीने देशलशाह की ऐसी प्रबल उत्कंठा दृष्टिगोचर कर उत्साहप्रद वाक्यों में यह प्रत्युत्तर दिया कि यद्यपि आप के पास इतनी प्रचुर सामग्री है तथापि इस कार्य के लिये शीघ्रता करनी परम भावश्यक होगी । वास्तव में आप परम सौभाग्यशाली व्यक्ति हैं. जिस के हाथों ऐसा शुभ कृत्य हो । देशलशाह गुरुवर्य की ऐसी प्रेमभरी बातों को सुन मन ही मन मुदित हो वंदना कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy