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________________ ब्दार का फरमान । १४९ जब ये समाचार पाटण पहुंचे तो महामना देशलशाह इन अनिष्ट समाचारों को सुन सहसा मूर्छित हो त्वरित धराशायी हुए। चूंकि आप लोकमान्य थे अतः आपकी इस दशा पर जैन संघ में तवाही मच गई। सब की चिन्ता द्विगुणित होगई। शीतल जल के सिंचन तथा शीतल वायु के सञ्चार से स्वल्प समय पश्चात् देशलशाह सावधान होने लगे। अपने गृह से विदा हो आपने अपने गच्छनायक आचार्य श्री सिद्धसूरि के समक्ष उपस्थित हो सारा वृत्तान्त सविस्तार सुनाया। उनकी गाथा सुनकर सामुद्रिक शास्त्र के पारगामी, महा विचक्षण, धुरंधर विद्वान प्राचार्य श्रीने देशलशाह को सम्बोधन कर कहा कि हे श्रेष्ठिवर, आर्तध्यान और चिंता करना ज्ञानियों का काम नहीं है। ऐसा कौन है जो भवितव्यता को टाल सकने में समर्थ हो सके । संसार के सर्व पदार्थ क्षणिक तया भंगुर हैं। जहां उत्पत्ति है वहाँ व्यय अवश्य है। इस पवित्र तीर्थ के पहले भी कई उद्धार हो चुके हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में भी असंख्य ऊद्धार हो चुके हैं। भरत-सागर सदृश चक्रवर्ती, पाण्डवों जैसे प्रबल पराक्रमी तथा जावड़शाह और वाग्भट जैसे धनकुबेरों के हाथ इस तीर्थ के रद्वार हुए हैं। वह समय ऐसा अनुकूल था कि उद्धार करने में सर्व प्रकार की सरलता थी परन्तु इस समय ऐसा कार्य करना सचमुच टेडी खीर है। यह तो किसी असाधारण भाग्यशाली नर पुरुष की ही शाति है जो इस महान् आवश्यक कार्य को सम्यक् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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