SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ समरसिंहजहाँ समुद्र नामक धर्म-मर्मज्ञ श्रावक था जिसने मन्दिर भी वनवाया था । वह गच्छ की प्रभावना करने में भी तत्पर था । वहाँ के राजा अर्जुन का कृपापात्र और १२,००० अश्वों का स्वामी कुमारसिंह था वह भी प्राचार्यश्री के सदुपदेश को सुन कर श्रावक हुआ। वह पराक्रमी वरि योद्धा था उसने गोहाद के राजा को पराजित कर उस का राज्य छीन लिया था। ' रावल' की उपाधि से विभूषित कुमारसिंहने स्तम्भन तीर्थ पर वीर जिनालय बनवा कर सूरिजी से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। घृतघठीक नामक नगरी में प्राचार्यश्री के उपदेश से विजा और रूपलने भी मन्दिर बनवाए । आपके उपदेश के प्रभाव से जैन धर्म के प्रति कई राजपूतों के उच्च भाव हुवे । कालान्तर में प्राचार्य ककसूरि तथा उनके पट्ट पर देवगुप्त सूरि महाप्रभाविक हुए। आपकी जीवन गाथा चरित्रकारोंने बहुत उत्तम ढंग से लिखी है। इनके पट्ट पर प्रभाकर सदृश आचार्य श्री सिद्धसूरि हुए जिनके सदुपदेश सें श्रेष्टि-गोत्र-मुकुटमणि देशलशाहने सात वार तीर्थयात्रा कर चौदह क्रोड़ रुपये व्यय किये । आचार्यश्री, शत्रुजय तीर्थ के पंद्रहवें उद्धारक साधु समरसिंह के धर्मगुरु थे। आप ही के उपदेश से हमारे चरित्रनायकने इस पवित्र कार्य को कर अक्षय पूण्योपार्जन किया । यह वही धीर, बीर और गंभीर नर-सिंह समरसिंह है जिसका जीवनचरित पाठकों को बताने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुभा है। चरितनायक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy