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________________ ११७ उपकेशगच्च-परिचय । संयोग से वह श्राप से मिला । आपने उसे युक्तियों द्वारा सत्य मार्ग बताया और उस घातकी मार्ग से बचाया । फिर वह अपनी कन्यामों को नहीं सताया करता था। इनके शिष्य चन्द्रप्रभ उपाध्याय हुए जो बड़े विद्वान और जिन धर्मके प्रचारक थे। एक समय हरिश्चन्द्र बाचनाचार्य बुलुन्द भावाज से धर्मोपदेश दे रहे थे । व्याख्यानशाला के पास से सारंगदेव नामक राजा सवारी किये जा रहा था । वह मुनिश्री की आवाज को मोजस्वी जान कर थोड़ा ठहर गया । उसे वह उपदेश इतना माया और सुहाया कि वह वहाँ दो घंटे तक उपदेशामृत पान करता रहा । उसने पीछे जिन धर्मके सिद्धान्तों पर पकी श्रद्धा भी ठान तथा मान ली। इसी तरह के एक पार्श्व मूर्ति नामक साहसी वाचनाचार्य थे। उन्होंने एक अभिग्रह लिया । वह इतना कठिन था कि साधारण मुनि की ऐसी कल्पना तक न हो। वह अभिग्रह यह था जो आपने पहले ही लिख कर एक डिब्बे में डाल दिया था-" मैं उस रोज पारणा करूंगा जिस दिन एक सात वर्ष का क्षत्री नम रूपमें रोता हुमा मार्ग में खड़ा अपने हाथ में डोरे में सात बड़े गिरोये हुए मिलेगा।" ऐसा अभिग्रह ले श्राप दूसरे ग्रामों की ओर विहार कर गये । पूरे ५० दिन बाद अभिग्रह फला । आचार्यश्री देवगुप्तसूरि भूमंडल में विजयवैजंती लिये विचर रहे थे । भाप विहार करते हुए बामनथली ( वणवली) पधारे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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