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________________ ९१६ समरसिंह वेदान्ती से मापने शास्त्रार्थ किया । अन्त में वह वीरभद्रद्वारा बहुत बुरी तरह से पराजित हुआ । इस प्रकार उस नगर में भी जैन धर्मकी पताका अच्छी प्रकार से फहराई । एक दिन वीरभद्रने कहा कि अब मेरी आयु के केवल १९ दिन ही शेष रहे हैं। यह सुनकर संघमें सनसनी छा गई और पाप का कथन भी सत्य निकला । ऐसे विजयी पुरुषों का जैन समाज से यकायक विदा हो जाना बहुत असह्य था । इसी गच्छ में देवगुप्तसूरि के एक शिष्य देवचन्द्र थे। आप को सरस्वती सिद्ध थी अतः आपने अनेकानेक वादियों को शास्त्रार्थ में पराजय कर प्रतिबोध दिया । आप एक वार महाराष्ट्र, तैलंग और करणाटक प्रान्तकी ओर पधारे । उधर जापली नामक नगर में एक धर्मरूचि नामक वादी रहता था जो सप्त छत्रधारी था । उससे शास्त्रार्थ कर देवचंद्रने सातों छत्र छीन लिये। आपने दीगम्बर धर्मकीर्ति आदि अनेकानेक वादियों को भी परास्त किया था। करणाटक प्रान्तमें धन कुबेर महादेव नामक साहूकार रहता था जिसने देवचन्द्र मुनि की खूब सेवा और भक्ति की । इसके आग्रह से आपने चन्द्रप्रभ नामक काव्य रचा जिसमें २१ सर्ग थे। दूसरे स्थिरचन्द्र नामक मुनि भी काव्यकलाविज्ञ तथा प्रमाणशास्त्र प्रवीण थे । और इनका शिष्य हरिश्चन्द्र भी इतना गुणि था कि गच्छाधिपतिने उसको उपाध्याय की पदवी दी थी। कच्छ प्रान्त का एक राजा जो अपनी कन्यामों को जन्मते ही मार डालता था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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