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समरसिंह । का ज्ञानाभ्यास चल रहा था उधर वजनसूरि अकस्मात् व्याधिसे पीड़ित हो पंचत्व को प्राप्त हो गये। इनके इस वियोग से भाचार्यश्री तथा उनकी शिष्य मण्डली बहुत अधीर हो गई। तथापि आचार्य श्री यक्षदेवसूरिने उन्हें विश्वास दिलाया कि अब चिन्ता करनेसे कोई लाभ नहीं। जहाँतक मुझसे बनेगा मैं आप लोगों की सब व्यवस्था ऐसे ढंगसे करदूंगा कि जिससे आपको किसी प्रकारसे गुरुवर्य का अभाव न खटकेगा । और आपने किया भी ऐसा ही । उन शानाभ्यासी छात्रोंमें चन्द्र, विद्याधर, नागेन्द्र और निवृति-ये चार शिष्य ही विशेष अग्रगण्य थे । इन्होंने परिश्रमपूर्वक जी जानसे अध्ययन किया परन्तु कालकी कुटिल गतिके कारण भारतमें भीषण अकाल पड़ने के कारण साधुओं की स्थिति यथायोग्य नहीं रही । अतः दूरदर्शी समयज्ञ आचार्य श्री यक्षदेवसूरिने वसूरिके
आज्ञावर्ती साधु और साध्वियों को एकत्र कर वासक्षेप और विधि-विधानपूर्वक चन्द्रादि मुनियों को अग्र-पद प्रदान किया । उस समय ये सब मिलाकर ५०० साधु, ७ उपाध्याय, १२ वाचनाचार्य, २ प्रवर्तक, २ महत्तर पदधर, ७०० साध्वियों, १२ प्रवर्तिका और २ महत्तरा थी । इस समुदाय के प्राचार्य-पद पर चन्द्रसूरि सुशोभित हुए। बाद दिन-प्रति-दिन संख्यामें वृद्धि होने के कारण इस समुदाय की अनेक शाखाएँ और प्रतिशाखाएँ फैली। तपा, खरतर, अंचलिया, भागमिया और पूनमिया आदि गच्छ इसीसे निकले हुए हैं। जब कोई नई दीक्षा दी जाती है या नया श्रावक बासक्षेप लेता है तो कोटीगण वजीशाखा चन्द्रकुल उच्चा
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