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________________ समरसिंह। दिग्दर्शन मात्र कराना सम्भव है । परन्तु यहाँ यह बात पाठकों को ध्यान में रखना चाहिये कि ऐतिहासिक समय-निर्णय की शृङ्खला के अभाव में एक ही गच्छ में एक नामके ६, ६, २३, २२ और २२ आचार्यों के हो जाने से समय के तथ्य निर्णय के करने में अनेक बाधाओं के उपस्थित होने की सम्भावना अवश्य है तथापि इतिहास के अनुसंधान को कुछ अध्यवसाय द्वारा विशेष परिश्रमपूर्वक अध्ययन करने पर तथ्य निर्णय पर पहुंचना भी सर्वथा संभव और शक्य है। इस गच्छ में वीर संवत् ३७३ में प्राचार्यश्री ककसूरि महान् प्रमाविक हुए हैं। आप आकाशगामिनी विद्या-विज्ञ थे अतः जिस समय उपकेशपुर नगर में वीरजिन-बिम्ब की ग्रंथी-छेदन के कारण उपद्रव घटित हुआ था उस समय आपश्री ही उसे सहज ही में शांत करने में समर्थ हुए थे। इन भाचार्यों की परम्परा में एक सिद्धसूरि आचार्य मी महान् प्रभाविक हुए हैं । इन्होंने वल्लभीनगरी के महाराजा शिलादित्य को प्रतिबोधित कर जैनी बनाया । वह राजा जिन-शासन का इतना भक्त हुमा कि प्रति वर्ष साश्वती पठाइयों का जिनमन्दिरों में भक्ति तथा भद्धा सहित अठाई महोत्सव करवाता था। भाचार्यश्री के उपदेश से इन्होंने श्री शत्रुजय तीर्थ का उद्धार भी १ देखो-जैनजाति-महोदय पश्चम प्रकरण पृष्ठ ८३ से १०४ तक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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