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________________ श्रेष्ठिगोत्र और समरसिंह। दुःख अनुभव करने लगे परन्तु गुरुवर्यने उपदेशद्वारा उनके चित्त को चिरस्थायी शांति दिलाने का भरसक प्रयत्न किया और लिखते हुए परम हर्ष है कि दूरदर्शी देशल के चित्त पर उसका अच्छा प्रभाव भी पड़ा। वह सांसारिक संताप को छोड़कर धार्मिक कृत्यों की ओर विशेष रुचि प्रदर्शित करने लगा। तीन की जगह पांचों होनहार पुत्रों को (तीन निज के तथा दो अपने अनुज के) पांचों पाण्डवों की तरह समझकर चित्त को आश्वासन देकर दोनों बन्धुओं के वियोग को वे भूल गये। पांचों को जीवनक्षेत्र में विजय प्राप्त करने योग्य शिक्षा दिलाने में उन्होंने कोई बात उठा नहीं रखी। जब वे पांचों पुत्र पूरी तरह से प्रवीण हो गये तो स्वावलम्बन पूर्वक रहने की व्यवहारिक शिक्षा देने के हित व्यापार कराने के हेतु से देशलशाहने अपने बड़े पुत्र को देवगिरि (दौलताबाद) और साहण को स्थंभन (खंभात) नगर को भेजा। ये दोनों नगर उस समय व्यापारिक केन्द्र होने के कारण खूब उन्नत थे। सहजपालने अपने बौद्धिकबल से देवगिरिनगर के राजा रामदेव को इस भाँति अपने वर्श किया कि उसे प्रत्येक आवश्यक कार्य में सहजपाल का परामर्श लेना अनिवार्य हो गया । राजा के १ सहज श्रीदेवगिरौ रामदेवं नृपं गुणैः। तथा निजवशं चक्रे यथा नान्यकथामसौ ॥९२५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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