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अर्थ-दिनरात्रि के ६२ भाग किये हों उनमें से ६१ भाग इतने प्रमाणवाली तिथि जैनशास्त्रकारों ने मानी है तो लौकिक टिप्पने के अनुसार सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की संपूर्ण पहिली पर्वतिथि को पौषध आदि धर्मकृत्यों से पालना वा मानना निषेध कर उस पर्वतिथि को तपगच्छवाले पापकृत्यों से विराधते हैं सो क्या युक्त है ? नहीं, क्योंकि श्रीहरिभद्रसूरि जी महाराज के वचन पर कौन भव्य श्रद्धावान् नहीं होगा ? देखो उन महापुरुष के युक्तियुक्त वचन को
तिहि बुट्ठीए पुव्वा, गहिया पड़िपुन्नभोगसंजुत्ता | इयरावि माणणिज्जा, परं थोवत्ति तत्तुल्ला || १ || ॥१॥
अर्थ - तिथि की वृद्धि हो तो पहिली तिथि सूर्योदय युक्त ६० घड़ी की परिपूर्ण भोगवाली होती है, इसलिये पहिली तिथि उपवास ब्रह्मचर्य आदि धर्मकृत्यों में ग्रहण करना और आराधना युक्त है, विराधना उचित नहीं । और दूसरी तिथि भी नाम सदृश किंचित् होती है, इसलिये नीलोतरी कुशीलादि का त्याग करके मानने योग्य है । खरतरगच्छवाले वैसाही मानते हैं । और सूर्योदययुक्त संपूर्ण तिथि न मिले तो सूर्योदययुक्त अल्पतिथि भी मान्य होती है । तत्संबंधी पाठ । यथा
अह जइ कहवि न लभ्यंति, ताओ सूरुग्गमेण जुत्ताओ । ता वरविद्धवराव, हुज्ज न हु पुव्वतिहिविद्धा ॥ १ ॥
अर्थ - अथ यदि किसी तरह भी ( ताओ ) वह संपूर्ण तिथियाँ न मिलें तो सूर्योदय करके युक्त (ता) वह (अवरविद्ध अवराविडुज्ज) याने दुसरी तिथि में विद्धाणी हुई पूर्वतिथि भी मान्य होती है, जैसे कि सूर्योदय में चतुर्दशी है, बाद पूर्णिमा
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