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( ४१ ) क्योंकि तपगच्छ के श्रीरत्नशेखरसारजी ने- “उदयंमि या तिहि सा पमाणा" इत्यादि उपर्युक्त गाथा में सूर्योदययुक्त तिथि प्रमाण मानी है और अन्य तिथि करने से आज्ञाभंग १, मिथ्यात्व २ तथा पर्वतिथि विराधने से पाप ३, ये तीन दोष लिखे हैं। तथा श्रीहीरविजयसूरिजी कृत हीरप्रश्न ग्रंथ में लिखा है कि___पूर्णिमाऽमावास्ययोवृद्धौ पूर्वमौदयिकी तिथिराऽऽराध्यत्वेन व्यवहियमाणाऽस्तीति केनचिदुक्तं, श्रीतातपादाः पर्वतनीमाऽऽराध्यत्वेन प्रसादयंति तत्किामोत पूर्णिमाऽमावास्ययोवृद्धौ औदायक्येव तिाथराऽऽराध्यत्वेन विज्ञेया ।
अर्थ-पूर्णिमा अमावास्या की वृद्धि होने पर सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की पहिली अमावास्या और पहिली पूर्णिमा औदयिकी पर्वतिथि पाक्षिक या चातुर्मासिम प्रतिक्रमणादि धर्मकृत्यों से आराधन करने में आती है, ऐसा किसी ने कहा है और (श्रीतातपादाः) श्रीहीरविजयसूरिजी पहिली तिथि को आराधनपने से मानना बतलाते हैं सो क्या कारण हैं ? उत्तर-सूर्योदययुक्त औदयिकी तिथि अवश्य आराधनपने से माननी समझना, इस मंतव्य के अनुसार भी औदायिकी पहिली दूज, औदयिकी पहिली पंचमी, औदायकी पहिली अष्टमी, औदयिकी पहिली एकादशी, औदयिकी ६० घड़ी वाली पहिली चतुर्दशी तपगच्छवालों को धर्मकृत्यों से आराधना उचित है किंतु पापकृत्यों से विराधना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रटीका आदि ग्रंथों में लिखा है कि
अहोरात्रस्य द्वाषष्टिभागीकृतस्य सत्का ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथिः।
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