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आगम
(३८/१)
प्रत
सूत्रांक [१]
दीप अनुक्रम [3]
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"जीतकल्प” छेदसूत्र -५/१ (मूलं)
भाष्यं [ ९४ ]
मूलं [...]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ३८/१], छेदसूत्र [५/१] "जीतकल्प" मूलं एवं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचितं भाष्यं
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से सर्व तु पगासती एवं उवणतो होति तं संभिण्णं तु जं वयं ॥ ४ ॥ जंच लोगमलोगं च सहतो पुत्रमादिसु स स तु जे भाषा, दवतो खेतकाली ॥५॥ भावतो व जे भाषा, जे तु पासती अभावा णत्थिताए तु. जाणती पासतीचि य ॥ ६॥ अह सङ्घदह परिणामभावविष्यत्तिकारणमणतं सासयमचाचाहं एहिं केवलणं ॥ ७॥ [सर्व यं चहा एतस्स परूवणट्टयाए तु गाहासुतं वृत्तं अत्ति जं बणितं हेहा ॥ ८ ॥ भिष्णमाहणं खलु कालतो तु सो पेप्पती तु एतेसिं। दवादीण चउन्हें परिणामो पजया जाण ॥ ९ ॥ जीवाण अजीवाण] य उपायष्यधुवत्तपजाया। परपचएण तिन्हं धम्मादीयाण परिणामो ॥ १०० ॥ गतिठितिबवगाहिं संजोगवियोगओ य सो होइ जोवइयादीयाणं परिणामो होइ भाषाणं ॥ १ ॥ एतेसिं चिय दशादियान कालो तु होति परिणामो का पति पति मुहमादिए बणादिपरिणामो ॥ २ ॥ दशादीपरिणाम सर्व जाणाति केवली अखिलं किं अवनी परिणामो एयस्त कारणं इणमो ॥ ३ ॥ बीसलपयोगि अम्मातियाण संघाण बीसमुष्यायो। पण्णरसहा पयोगो तिविहे कालम्मि परिणामो ॥ ४ ॥ जो केवली मणूसो पण सो तु बाहं करेऽण्णसत्ताणं नियमेन अणावाहं पावइ मोक्खं खविध सेस ॥ ५ ॥ जं छउत्थियणानं केवलियो ण खलु चिजए तं तु जम्हा वयोपसमिए पते छाउमत्या उ ॥ ६ ॥ भावे केवल नियमेण खाइए णि ण उ अक्लीणे मीसे खाइयभावस्त उपपत्ती ॥ ७॥ तम्हा एमहिलल केवलणाणं तु होति उवषण्णं जेणाऽऽह केवलम्मिवि छ (गु)पुणाऽणामोहता तेसि ॥ ८ ॥ आदिगरा धम्माणं चरितवरणाणदंसणसमग्गा सङ्घतगणाणेण ववहारं ववहति जिणा ॥ ९ ॥ पञ्चस्वश्वहारो इंदियणोईदिएस खातो जगमजो बहारी पारोक्खं तु इमं वोच् ॥ ११० ॥ पचकलागमसरिसो होति परोक्लोरि आगमो जस्स चंदमुहीच तु सोचि आगमनहारवं होति ॥ १ ॥ नातं आगमियंतिय एगई जस्स सो परायो। सो पारोक्लो वृद्धति तस्स पदेसा इमे होति ॥ २ ॥ पारोक्खं वज्रहारं आगमतो सुतधरा वषति चोदसदसपुत्रधरा व्यवपुत्रिय गंधहस्थी य ॥ ३ ॥ किह आगमचपहारी ?, जम्हा जीवादयों व पयस्था उपलदा तेहिं तु सोहिं नयवियाहिं ॥ ४ ॥ जह केवली विमाणति वर्ष लेतं च काल भावे च तह चलनखणमेतं सुतणाणीवी विपाणाति ॥ ५ ॥ पण मासविवदि मासिगहाणी व पणगहाणी य एगाहे पंचाई पंचाहे पेव एगाहं ॥ ६ ॥ रागोसविषहिंद हाणि वा जातु देति पञ्चाक्खी चोहसपुत्रादीवि तह गाउं देति हीणऽहिये ॥ ७ ॥ यो जगपुच्छा पचक्खनामिणो येवेऽचि कह पहुं देति भणति सुण एवं दितं वाणिएण इमं ॥ ८ ॥ जं जहमो स्वर्ण तं जाणति स्यनधानियो णिउणो घोष तु महास्थवि कासति अप्परसचि पहुं तु ॥ ९॥ अहवावि कायमणिणो सुमहाउस्सावि कागिणी मोठं पहरस तु अप्परसवि मोठं होती सतसहस्सं ॥ १२० ॥ इय मासाण बहुवि रागहोसऽपयाए पोषं तु । रागद्दोसोवचया पणगेवि जिणा बहु देति ॥ १ ॥ पञ्चकली पचलं पासति पडिसेबस्स सो भावं किह जाणति पारोक्खी नातमिणं तत्य धमएणं ॥ २ ॥ गालीपण जिणा उधार करेंति पारोक्ले जइ सो काळं जागति सुए सोहिं तहा सो तु ॥ ३ ॥ जेणं जीवाऽजीवा उबला सहभावपरिणामा तो पुढधरा सोहिं कुति सुज वदेसेणं ॥ ४ ॥ तं पुण केण कतं तू सुतणाणं जेण जीवमादीया कति सहभाषा ? केवलणाची तंतु कतं ॥ ५ ॥ संतेवि आगमम्मी जाहे आलोतियं तु ते भये सम् माऽऽलोएती पडिकजति सारियो जया ॥ ६ ॥ तो तस्स उपच्छिलं जेण विमुज्झति तगं पयच्छति आगम चबहारी उत्रिहोति पठिउंचिएँ न देति ॥ ७॥ आलोतियपडित होती आलोयणा तु नियमेणं अगलोइयम् भवणा कि पुर्ण भरणा भवति तस्स ॥ ८॥ आलोयणापरिणतो अंतर काल करे अभि(वि) मुझे वा अहवावी आयरिओ एमेव य होति संपतो ॥ ९ ॥ जा राहओ तु नहवी जं सम्मालोयणापरिणतो तु। नाराति अपरिणयो एवं भगणा भवति एसा ॥१३०॥ अवराहं विद्याणति, तस्स सोहिं व जदची तहाऽऽऽलोयणा वृत्ता आलो बहुगुणा ॥ १ ॥ दशेहिं पचेहि कमलेले कालभावपरिसुद्धं जालोयण मुणिता तो वहारं पठति ॥ २ ॥ दुबे सवितादी व दहा यह विगप्पेहिं पुापुविमादी कमओ एवं तु आए ॥ ३ ॥ अदा जणवा खेकाले सुभिक्ख दुम्भिक्ते भावे गिलाणे सेविय जह तं तालोए ॥ ४॥ अह्वा सहसऽण्णाणा भीएण व पेडिएण व परेहिं बसणेण प्रमाण व मूद्रेण व रामदोसेहि ॥ ५ ॥ पुषं पासिणं छूढे पायम्मि जं पुणो पासे ण व तरति जियते पायं सहसाकरणमेयं ॥ ६॥ अष्णतरपमाए असंपत्तस्सऽणोषउत्तस्स । इरियाइस भूतत्थे अतो एतदणाणं ॥ ७ ॥ भीओ पलायमाणो अभियोगभएण वावि जं कुजा पढितो व अपडितो वा पहिला पेडिओ पाणे ॥ ८ ॥ गीतादि होति च पंवि तुमने पमादो उ। मिच्छतभाषणातू मोहो वह रागदोसा ऊ ॥ ९ ॥ एतेसि ठाणाणं अण्णय कारणे समुप्पण्णे तो आगमीमंस करेंति अन्तान भएणं ॥ १४० ॥ जदि आगमो य आलोयणा य दोणिवि सम तु निवति एसा खलु वीमंसा जो अ सह जेण वा सुज्झे ॥ १ ॥ नाणमाईणि अण्णा (ता) णि, जेण अत्थे (तो) उसो भये रागहोसप्पीणे वा जे पा चिसोहिए ॥ २ ॥ सुतं अन्ये उभयं आलोयण आगमो इती उभयं जंतं उभयंति वृतं तत्येसा होति परिभासा ॥ ३ ॥ पडिसेवणालियारे जदि नाउ जहरू सच्चे न देती पि आगमवहारिणो तस्स ॥४॥ पडिलेवणातियार जदि आउछ जहकर्म सके। देति तच पच्छितं आगमनवहारिणो तस्स ॥५॥ कहि स जो पुनो, जानमाणोषि गृहनि तस्स (२५३) १०१२ जीतभाये
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मुनि दीपरत्नसागर
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