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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ४७३ उन पर आर्य-प्रभाव कम न थे तथापि उनमें ज्ञान की अपेक्षा भक्ति ही प्रधान थी। उनके उत्साही भक्त ज्ञान की उपेक्षा कर जिस 'प्रसाद' को लेकर आगे बढ़े उसमें आश्वासन की अपेक्षा अभिशाप ही अधिक था। उनकी दृष्टि में परमपिता के एकाकी पुत्र पर ही विश्वास लाना मुक्ति का मार्ग था। किंतु मनुष्य स्वभावत: चिंतनशील प्राणी है। अंधकार में वह अधिक दिन तक नहीं ठहर सकता । प्रतएव, जिनका मसीह पर विश्वास नहीं जमा उनमें बुद्धि का व्यापार बढ़ा। मसीही संघ ने उनको नास्टिक की उपाधि दी।
कहा जाता है कि नास्टिक मत का प्रवर्तक साइमन नामक मग था। मग जाति का तसव्वुफ में कितना योग है, इसका अनुमान शायद इसी से किया जा सकता है कि सूफी आज भी 'पीरेमुगा' का जाप जपते हैं और उनसे मधु-पान की याचना करते हैं। इससे स्पष्ट प्रवगत होता है कि नास्टिक मत वस्तुत: सूफी मत का सहायक था। नास्टिक मत यथार्थ में एक यौगिक मत का नाम था। उसमें उस समय के सभी प्रचलित मतों का योग था। सारमाही जीवों ने अपनी मधुकरी वृत्ति से जिज्ञासा के प्राधार पर जिस तत्व का संग्रह किया वही नास्टिक मत के नाम से ज्यात हुमा। नास्टिक मत के व्यर्थ के विश्लेषण में न पड़, हम इतना ही कह देना पलं समझते हैं कि उसमें केवल मादन-भाव का प्रचार ही न था, अपितु उसका प्रतिपादन भो हो रहा था। सफियों का एक पुराना नाम' नास्टिक भी था। पाल के संदेशों में जिन विवादियों का उल्लेख किया गया है वे वास्तव में नास्टिक ही थे। सम्वुफ पर नास्टिक मत का प्रभाव सभी मानते हैं, पर इस
(1) En. of Religions and Ethics (*) The Early development of Mohammeda
nism p. 144
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