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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सकता कि मादन-भाव का उदय प्रीस की गुह्य टोलियों में ही हुआ। हम पहले ही कह चुके हैं कि वासना का मुक्त विलास, संभोग की स्वच्छंद लीला, प्रावेश का अलौकिक प्रादर, व्यभिचार का पवित्र स्वागत, संगीत का उत्क्रांत विधान एवं नाना प्रकार की अजीब बातों के साथ सुरा-सेवन प्रभृति अनोखे कृत्यों का पूरा प्रसार संसार के सभी देशो की गुह्य मंडलियों में था। इन मंडलियों की रति-प्रक्रिया और उल्लास के साध्य, आनंद का प्रास्वादन आगे चलकर अलौकिक प्रेम के रूप में परिस्फुटित हुआ और लोग . सहजानंद के उपासक बने रहे। भारत में सहजानंद के जो व्याख्यान हुए उनके संबंध में कुछ निवेदन करने की आवश्यकता नहीं। यहाँ केवल यह स्पष्ट करना है कि प्रार्य जातियों ने बुद्धि के बल पर सहजानंद का जैसा निरूपण किया वैसा शामी जातियों में न हो सका, पर वे उसके प्रसाद से वंचित न रहे। शामी जातियों में अन्य जातियों से भाव-ग्रहण करने की तत्परता बराबर थी। यहूदी जाति तो व्यापार में कुशल थी और भारत तथा प्रोस के व्यापार में मध्यस्थ का काम करती थी। फलतः उस पर आर्य-संस्कृति का पूरा प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव में पणि, हिट्टी. मितन्नी आदि जातियों का पूरा योग था। यहूदी जाति में जो कई संप्रदाय चल पड़े थे उसका प्रधान कारण बाहरी प्रभाव ही था। प्रीस, फारस और भारत के संसर्ग में प्रा जाने से शामी जातियों में “बुद्धौ शरणमन्विच्छ” का सिंहनाद आरंभ हुआ। फीलो (मृ० ६७ ५० ) ने मूसा और प्लेटो के मतों का समन्वय इष्ट समझा। यहूदी संघ में वाद-विवाद वर्क-वितर्क होने लगे। एसीनों में गुह्य विद्या का प्रचार हो गया और वे एक प्रकार के संन्यासी या भिक्षु बन गए। मसीह प्रारंभ में एसीन थे। यद्यपि (1) Was Jesus influenced by Buddhism p. 114-15
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