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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ४५५ किसी अन्य साथी को, उसकी गुह्यता के कारण, सौप दिया। मुसलमानों में जो कट्टर थे उनको सूफियों के विचारों में कुछ गैर. इसलामी भावों का समावेश देख पड़ा; अत: उन्होंने तसव्वुफ को इस नाम से कुछ मिन्न समझा। इस प्रकार स्वत: इसलाम में तसव्वुफ के संबंध में मतभेद रहा। कभी उसके विषय में मुसलिम एकमत न हो सके।
मुसलमानों के पतन के बाद मसीहियों का सितारा चमका । सूफियो और मसीही संतों में बहुत कुछ साम्य था हो। मसीहियों ने उचित समझा कि सूफियों को पूरा नहीं तो कम से कम आधा वो अवश्य ही मसीही सिद्ध किया जाय। निदान, उन्होंने कहना शुरू किया कि प्रारंभ के सूफी जान या मसीह के शिष्य थे। पाद. रियों के लिये तो इतना कह देना काफी था। पर मसीही मनोषियों को इतने से संतोष न हो सका। उन्होंने देखा कि जैसे कुरान की सहायता से तसव्वुफ इसलाम का प्रसाद नहीं सिद्ध हो सकता वैसे ही इंजील के प्राधार पर भी उसको मसीही मत का प्रसाद नहीं कहा जा सकता। तब तसव्वुफ पाया कहाँ से ? प्रार्य-उद्गम' तो उनको रुचिकर न था। फिर भी, उन्हें उन विद्वानों को शांत करना था जो तसव्वुफ को प्रार्य-संस्कार का अभ्युत्थान अथवा वेदांत का मधुर गान समझते थे। प्रस्तु. उन्होंने नास्तिक और मनी-मत के साथ ही साथ नव-प्लेटो-मत की शरण ली। नव-प्लटो-मत की सहायता से उन प्रमाणों का निराकरण किया गया जिनके कारण तसव्वुफ भारत का प्रसाद समझा जाता गा। जब उससे भी पूरा न पड़ा तब, इतिहास के प्राधार पर, बाद के सूफियो पर उन्होंने भारत का प्रभाव मान लिया और
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A Literary History of Persia p. 301
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